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पंच - कारणवादों की समीक्षा और समन्वय
३३९ सम्राट को अकस्मात् रोग उत्पन्न हो जाना, सती दमयन्ती और सती अंजना को दीर्घकाल तक पतिवियोग हो जाना, त्रिखण्डाधिपति वासुदेव श्रीकृष्ण जैसे प्रचण्ड पराक्रमी पुरुष की जराकुमार के बाण से मृत्यु होना, सत्यमूर्ति हरिश्चन्द्र जैसे प्रतापी राजा को चाण्डाल के यहाँ नौकर रहकर श्मशान घाट का प्रहरी बनना पड़े, राजकुमारी 'चन्दनबाला' जैसी पवित्र कन्या को दासी बनकर बिकना पड़े और उसकी मालकिन के द्वारा दी गई विविध यातनाएँ सहनी पड़ीं, सुभद्रा जैसी पवित्र सती पर मिथ्या कलंक चढ़ाया जाए, सती मदनरेखा को पतिवियोग, वन में भ्रमण इत्यादि अनेक कष्ट सहने पड़े, ये और इस प्रकार की अतर्कित एवं अप्रत्याशित घटनाएँ कर्म की महिमा को उजागर कर रही हैं। व्यक्ति चाहे जितना उपाय कर ले, अमुक कार्य के लिए पुरुषार्थ भी पूरा-पूरा कर ले, उसका वैसा अभ्यास और स्वभाव भी हो, समय भी उस कार्य की सफलता के लिए अनुकूल हो, . फिर भी पूर्वकृत कर्म का उदय हो तो उसके आगे किसी की नहीं चलती ।
एक भौरा कमल के कोश में बंद हो गया है। उसका स्वभाव लकड़ी को भी काट सकने का है, फिर भी उस समय वह अपने स्वभाव को भूलकर कोमल कमल को नहीं काट पाता। वह सोचता है-रात बीत जाएगी, प्रभातकाल हो जाएगा, सूर्योदय होते ही कमलकोश खिल उठेगा। इस कमल का मुख खुलते ही मैं सही-सलामत बाहर निकल जाऊँगा । इसमें स्वभाव, काल और नियति तीनों के होने पर भी पूर्वकृत क्रूर कर्मों का पंजा ऐसा पड़ता है-कि बेचारा भौंरा सोचता ही रह जाता है और कमल सहित उस भौर को एक हाथी आकर पैरों तले रौंद डालता है। भौंरा समाप्त हो जाता है। इस घटना में भी कर्म की बलवत्ता सिद्ध होती है । "
एक चूहे ने सांप के एक पिटारे में घुसने के लिये आधा घंटा परिश्रम करके एक छिद्र कर डाला। फिर स्वयं उसमें घुसा। घुसते ही पिटारे में बन्द सर्प के मुँह में जा पड़ा। सर्प को बिना मेहनत के भोजन मिल गया। वह खा-पीकर चूहे के द्वारा बनाये छेद से पिटारे के बाहर निकला। मदारी की कैद से भी उसे छुटकारा मिल गया। यह कर्म का ही प्रभाव था कि पुरुषार्थ करने वाले चूहे को मृत्यु मिली और पिटारे की कैद में बन्द सर्प को भोजन और छुटकारा मिला ।
इस विश्व में जो कुछ भी विचित्रता, विविधता, अभिनवता या विरूपता दृष्टिगोचर हो रही है, उसका मूल कारण एकमात्र कर्म ही है।
१. देखिये इस घटना को अभिव्यक्त करने वाला श्लोक
"रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभात, भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजश्रीः । इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे हा हन्त हन्त । नलिनीं गज उज्जहार ॥"
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