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पंच- कारणवादों की समीक्षा और समन्वय ३३७
होगा, वही होगा, या विधाता ने भाग्य में जो कुछ भी लिखा होगा, वही होगा; इसको लेकर अपने पुरुषार्थ को, अपने कर्त्तव्य को तिलांजलि देकर हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाना उचित नहीं । यह नियतिवाद की ओट में स्व- पुरुषार्थहीनता को आश्रय देना है, अपने आलस्य एवं अकर्मण्यता का पोषण करना है।
गोशालक का नियतिवाद एकान्त है, वह अकारणवाद तथा अकर्मण्यता का आश्रय लेने तथा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य एवं पुरुषार्थ को ठुकराकर एकान्तरूपं से नियति के अधीन होने की पेरणा देता है। अगर सम्यक् नियतिवाद का आश्रय लिया जाए तो वहाँ कभी ऐसा विचार नहीं होता कि सब कुछ नियत है, फिर मुझे कुछ पुरुषार्थ करने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि उसका पुरुषार्थ भी तो नियत होता है, कार्य का काल भी नियत होगा, उसका वैसा स्वभाव भी अवश्य निश्चित होगा और वैसा शुभ कर्म का उदय अथवा अशुभ कर्म का नाश भी नियत होगा, तब फिर स्वकर्तृत्वरूप पुरुषार्थ में नियतिवाद कहाँ बाधक है ? यह ठीक है क़ि परोक्षज्ञानी को यह नहीं ज्ञात होता कि क्या नियत है, क्या भवितव्य है, और क्या होने वाला है ? अतः उसे मोक्षमार्ग में सम्यक् पुरुषार्थ करने में पीछे नहीं हटना चाहिए ।
अनन्तकाल तक का क्रमबद्ध पर्याय परिवर्तन होना नियत है, इस प्रकार का नियतिवाद आध्यात्मिक जगत् में माना गया है, ऐसा माने बिना सर्वज्ञ केवली भगवान् अपने ज्ञान में तीन काल, तीन लोक के घटनाक्रम को · युगपत् कैसे जान पाएँगे ? यही कारण है कि भगवान् महावीर केवलज्ञान होने के पश्चात् भी इसी नियतिवाद को कालादि का सहकारी कारण मानकर सम्यक् पुरुषार्थ करते रहे।
अल्पज्ञानियों के लिए भी अन्य कारणों के रहते हुए कार्य न होने या उद्देश्य के विपरीत होने पर नियतिवाद बहुत बड़ा आश्वासनदायक सम्बल बनता है कि ऐसा ही होना था, इससे घबराकर मुझे बैठना नहीं चाहिए, किन्तु कमर कसकर आगे के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
यह तो नियतिवाद का दुरुपयोग है, या उसके स्वरूप को भलीभांति न समझना है कि चोर ने चोरी की, उसमें उसका क्या दोष ? वैसा ही होना था। जिसकी चोरी हुई, उसका भी वैसा होना निश्चित था, अतः चोर को सजा नहीं मिलनी चाहिए इत्यादि । किन्तु चोर की गिरफ्तारी,
१. नियतिवाद की स्पष्ट समीक्षा के लिए देखिये - जैनदर्शन ( डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य)
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