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कर्मवाद के अस्तित्व - विरोधी वाद - १ ३१३
नहीं ? दिनकर पूर्व में ही क्यों उदय होता है, पश्चिम में क्यों नहीं ? मछली पानी में ही जिन्दा रह सकती है, जमीन पर क्यों नहीं ?
इन सब प्रश्नों का एक ही उत्तर है, वह यह है विश्व - प्रकृति के अटल नियम के अनुसार जो नियत है, वही होता है, अन्यथा नहीं। अगर नियति के अटल नियमानुसार कार्य न हो तो संसार में कोई सुव्यवस्था ही नहीं रहेगी। इसलिए संसार में अभी तक जो कुछ हुआ है, भविष्य में जैसा जो कुछ होना है और वर्तमान में भी जैसा, जो कुछ हो सकता है, वह सब पहले से नियत है। नियति के अटल नियम के समक्ष काल, स्वभाव, कर्म आदि सब तुच्छ और अकृतकार्य हैं।
नियतिवाद का वर्णन आकर्षक ढंग से सूत्रकृतांग, व्याख्या-प्रज्ञप्ति, उपासकदशांग' आदि जैनागमों में हुआ है। गोशालक के नियतिवाद का विवरण भवितव्यता, अकर्मण्यता, भाग्यवाद अथवा अक्रियावाद से अनुप्राणित है।
बौद्धत्रिपिटक दीघनिकाय के सामञ्ञफलसुत्त में मंखली गोशालक के नियतिवाद का विवरण इस प्रकार मिलता है- "प्राणियों की अपवित्रता का कोई कारण नहीं, वे बिना कारण ही अपवित्र होते हैं, इसी प्रकार प्राणियों की पवित्रता (शुद्धता) का भी कोई कारण या हेतु नहीं है, हेतु और कारण के बिना ही वे शुद्ध होते हैं। अपने सामर्थ्य के बल पर कुछ नहीं होता। पुरुष के सामर्थ्य के कारण किसी पदार्थ की सत्ता नहीं है। न आत्मकार है, न परकार है, न पुरुषकार है, न बल है, न वीर्य (शक्ति) है, और न ही पुरुष का पराक्रम है। सभी सत्त्व, सभी प्राणी, सभी भूत और सभी जीव अवश हैं, दुर्बल हैं, बलवीर्य-रहित हैं। उनमें नियति, जाति, वैशिष्ट्य एवं स्वभाव के कारण परिवर्तन होता है। नियति से निर्मित अवस्था में परिणत होकर छह अभिजातियों में से किसी एक जाति में रहकर प्राणी दुःखों का अनुभव करते हैं। चौरासी लाख महाकल्प के चक्र में घूमने के बाद बुद्धिमान् और मूर्ख दोनों के दुःख का नाश हो जाता है।"
'आगे 'बुद्धचरित' में बताया गया है - "यदि कोई यह कहे कि मैं शील, .- व्रत, तप अथवा ब्रह्मचर्य से अपरिपक्व कर्मों को परिपक्व करूंगा अथवा परिपक्व हुए कर्मों को भोगकर उन्हें नामशेष कर दूंगा, तो ऐसी बात
१. (क) सूत्रकृतांग २/१/१२
(ख) व्याख्या - प्रज्ञप्ति शतक १५
(ग) उपासकदशांग अ. ६ और ७
२. दीघनिकाय - सामञ्ञफलसुत्त
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