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३३२ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२).
तथागत बुद्ध की यह अव्याकृतता जनता को भ्रम में डालने वाली है। कभी-कभी मनुष्य इन सबके विषय में निषेधात्मक उत्तर सुनकर अनैतिक या विपरीत मार्ग पर चल पड़ता है। फिर उसे वापस मोड़ना बहुत ही दुष्कर हो जाता है। अव्याकृतवाद कर्मवाद के सिद्धान्त में बाधक है। मनुष्य को यह निश्चय हो जाने पर कि उसे जिन कर्मों से मुक्ति पानी है, वे कौन-कौन-से हैं ? कैसे फल देते हैं ? इत्यादि तथ्यों को तो वह भलीभाँति हृदयंगम कर ही सकता है। फिर उन्हें अव्याकृत कहकर संशय में डालने या अनिश्चयात्मक स्थिति में रखने से क्या लाभ?
इस प्रकार जगत् के प्राणियों में नानारूपता और विचित्रता के कारण के रूप में जब से भूत, पुरुष, प्रकृति इत्यादि वादों को मानने की विचारधाराएँ चलीं तब से, मानव-विचारक, ऊहापोह, संशय, भ्रम और संदेह के झूले में झूलते रहे हैं। तथागत बुद्ध और महावीर के युग तक में भी कई कर्मवाद-बाधक वाद प्रचलित हुए और वे कालान्तर में विलीन हो गए। जनता के अन्तःकरण में वे रम नहीं सके। जैन कर्मवाद ही जनता के मन में भलीभाँति हृदयंगम हो सका, क्योंकि इसे बाद के आचार्यों ने युक्ति, तर्क एवं अनुभव के आधार पर पल्लवित एवं विकसित किया। ,.
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