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३२८ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
अज्ञानवादी तर्ककुशल होते हैं, परन्तु असम्बद्ध प्रलाप करते हैं। अज्ञानवाद का प्रतिपादन करते समय प्रयुक्त किये जाने वाले तर्क, युक्ति या अनुमानादि प्रमाण ये सभी ज्ञान से ही किये जाते हैं। इसलिए यह तो 'वदतो व्याघात' जैसा हो गया। उनके ऊटपंटाग तर्कों से उनका अपना ही संशय नहीं मिटता। वे स्वयं अज्ञानी हैं और अज्ञजनों में मिथ्या प्रचार करते हैं। संजय वेलट्ठिपुत्त से परलोक, देव, नारक, कर्म, निर्वाण आदि के अस्तित्व के सम्बन्ध में पूछे जाने पर उसने इन अदृश्य पदार्थों के विषय में स्पष्ट रूप से घोषणा की-"इनके सम्बन्ध में विधिरूप, निषेधरूप, उभयरूप यां अनुभयरूप, कुछ भी निर्णय नहीं किया जा सकता।
उस युग में ऐसे अदृश्य पदार्थों के विषय में अनेक कल्पनाओं का सहारा लिया जा रहा था। एक ओर चार्वाक जैसे नास्तिक लोग उनका सर्वथा निषेध कर रहे थे, जबकि दूसरी ओर कुछ विचारक लोग इन दोनों पक्षों के बलाबल पर विचार करने में तत्पर हो रहे थे। इस प्रकार पक्ष और विपक्ष के द्वारा अपने-अपने पक्ष में प्रतिपादन हो रहा था। वहाँ कतिपय वादी किसी निश्चित रूप से किसी बात को मानने या प्ररूपण करने में समर्थ नहीं हो रहे थे, ऐसी स्थिति में कुछ वादी तो प्रत्येक विषय में संशयवादी बनकर संशय करने लग गये अथवा सभी पदार्थों का ज्ञान सम्भव ही नहीं है, यह कहकर वह अज्ञानवाद की ओर झुक गए थे।
अनिश्चयवाद या संशयवाद-इसी प्रकार 'ऋग्वेद' के 'नासदीयसूक्त' में भी सृष्टि-वैचित्र्य के निर्माण के विषय में ऋषियों का अनिश्चय रहा। उन्होंने कहा-"साक्षात् कौन जानता है ? यहाँ कौन कहेगा कि कहाँ से यह (सृष्टि) पैदा हुई ? कहाँ से यह सृजन हुआ? इसके सृजन के पश्चात् देव हुए। अतः कौन जानता है कि किसमें से (यह सब) हुआ ?"
१. (क) बुद्ध चरित पृ. १७८
(ख) न्यायावतार वार्तिक वृत्ति की प्रस्तावना देखें, पृ. ३९ से आगे (ग) इस मत के विरुद्ध भगवान् महावीर ने सूत्रकृतांग आगम में अनेकान्तवाद
(सापेक्षवाद) की दृष्टि से वस्तु का अनेकरूपेण वर्णन किया। (घ) सूत्रकृतांग १/१२/२ (ङ) महावीर स्वामीनो संयम धर्म पृ. १३५ (च) सूत्रकृतांगचूर्णि पृ. २५५ ।। (छ) Creative Period में विशेष विवरण देखें, पृ. ४४४
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