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३२६ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
अपने विवेक और सदाचारण के लिए प्रत्येक प्राणी स्वयं स्वतन्त्र एवं उत्तरदायी है। यदि ईश्वर ही अपनी इच्छा से प्राणियों को कर्म कराता है, और वही उसका फल भुगवाता है, तब तो वह ईश्वर स्वयं ही अपराध एवं दण्ड का पात्र ठहरेगा। ऐसी स्थिति में चोरी आदि पाप कर्म करने वाले को नहीं, ईश्वर द्वारा उस उस पाप कार्य में प्रेरित होने से वही ( ईश्वर ही) दोषी माना जाएगा। इसलिए ईश्वर को जगत्-कर्तृत्व आदि के प्रपंच में न डालकर कर्मवाद को मानना ही श्रेयस्कर है।
कर्मवाद की दृष्टि से ईश्वर कर्मों से मुक्त, सिद्ध, बुद्ध, अनन्तज्ञानादि - चतुष्टय से युक्त होते हैं, वे जगत्-रचना आदि के प्रपंचों में नहीं पड़ते। 'जीव किसी विधाता या ईश्वर के आश्रित या उससे प्रेरित होकर न तो कर्म करता है, न ही उसकी प्रेरणा से उसका फल भोगता है। कर्मों में इतनी शक्ति है कि वे स्वयं ही उसका फल दे देते हैं, और जीव स्वयमेव अपनी कर्मानुसारिणी बुद्धिं एवं इच्छा के अनुसार शुभाशुभ कर्म करता है, और यथासमय उसका फल पाता है। अतः जगत्-वैचित्र्य का कारण पुरुषवाद को मानना निरर्थक है। ईश्वर या ब्रह्म जगत्-वैचित्र्य का कारण कथमपि सिद्ध नहीं होता ।
कौन-से वाद हेय, कौन-से उपादेय ?
जैनदर्शन ने जगत्-वैचित्र्य के कारणरूप उक्त वादों को अनेकान्तवाद की कसौटी पर कसा और जिनका जितनी मात्रा में, जिस अपेक्षा से समन्वय हो सकता था, उनका समन्वय किया और जिन वादों की कोई उपयोगिता नहीं थी, जिन वादों से आत्मा के स्वातन्त्र्य में, आत्मा के स्वयं विकास में बाधा पहुँचती थी, उनका सयुक्तिक निराकरण किया और विचित्रता के मूल कारणों को कर्मवाद के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया। जगत् के समक्ष जैनदर्शन ने कर्मवाद के उस सत्य को स्थापित किया, जो आध्यात्मिक विकास में, आत्मस्वातन्त्र्य में, समस्त दुःखों का अन्त करने में और अनन्तज्ञान-दर्शन, आत्मिक आनन्द एवं शक्ति को प्राप्त करने में प्रेरक हो ।
इस दृष्टि से जैनदर्शन ने 'श्वेताश्वतर उपनिषद्' में विश्व - वैचित्र्य के कारणों के रूप में उल्लिखित काल आदि छह वादों में से यदृच्छावाद, भूतवाद और पुरुषवाद की कोई उपयोगिता न समझकर सयुक्तिक खण्डन किया तथा शेष काल, स्वभाव, नियति, इन तीन वादों की समीक्षा करके यथोचित रूप से समन्वय किया ।
कर्मवाद की जड़ काटने वाले कुछ वाद
अक्रियावाद - बौद्धपिटक में तथागत बुद्ध के युग में हुए ६ दार्शनिकों का तथा उनके मत का वर्णन किया गया है। उनमें अक्रियावादं भी एक है।
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