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३२४ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
ईश्वरकर्तृत्ववाद युक्तिबांधित
न्याय कुसुमांजलि में ईश्वर द्वारा सृष्टिकर्तृत्व के ७ कारण बताए गए हैं- (१) कार्य-कारणभाव, (२) आयोजन, (३) आधार, (४) निर्माण कार्यों का शिक्षक, (५) श्रुति रचयिता, (६) वेदवाक्य कर्त्ता, (७) ज्ञाता । परन्तु एक ही तर्क से उक्त सभी कारणों का खण्डन हो जाता है कि ईश्वर निरंजन निराकार कृतकृत्य है, तब वह सृष्टि, वेद, तथा वस्तु निर्माण आदि रचना कैसे करगा? कोई भी निराकार व्यक्ति ऐसा कर नहीं सकता । अतः ये सारे कारण काल्पनिक सिद्ध होते हैं।
दूसरी बात - ईश्वर यदि कारुणिक है, वह अज्ञ, दीन और परतन्त्र जगत् के प्राणियों को सुख-दुःख, स्वर्ग-नरक आदि प्राप्त कराने में कारण है, परन्तु जगत् के जड़ और चेतन पदार्थ अनादिकाल से अपने अस्तित्व : और स्वरूप से स्वतन्त्र सिद्ध हैं, वे सब परस्पर सहकारी होकर प्राप्त सामग्री के अनुसार परिणमन करते हैं, ईश्वर ने असत् से किसी भी एक सत् को उत्पन्न नहीं किया है। ऐसी स्थिति में सर्वशक्तिमान् ईश्वर को जगत्कर्त्ता मानने की आवश्यकता नहीं रहती ।
ईश्वर यदि कारुणिक है तो ऐसी विषम सृष्टि का निर्माण नहीं करता। करुणाशील व्यक्ति तो यह ध्यान रखता कि जगत् में कोई भी प्राणी दुःखी न हो, सभी सुखी हों। परन्तु ऐसा तो है नहीं । अधिकांश प्राणी दुःखी हैं और ईश्वर उनकी पुकार सुनकर भी दुःखनिवारण करने नहीं आता। यदि कहें उस-उस प्राणी के अदृष्ट के अनुसार ईश्वर उसे सुखी या दुःखी करता है, परन्तु अदृष्ट भी तो ईश्वर से ही उद्धृत तत्त्व है । फिर अपने ही द्वारा समुत्पन्न अदृष्ट से जगत् के प्राणियों को दुःखी बनाना कारुणिक ईश्वर के लिए उचित नहीं । सृष्टि रचना के पूर्व तो किसी प्राणी में 'अदृष्ट' नहीं था, न ही अनुकम्पायोग्य प्राणी थे, फिर उसने ऐसा अशुभ अदृष्ट उन प्राणियों में क्यों भरा, और किस पर अनुकम्पा करके शुभ अदृष्ट भरा ? इस प्रकार ईश्वरवाद की निःसारता सिद्ध हो जाती है।
. जगत् के निर्माण करने में उस ईश्वर की प्रवृत्ति अपने लिए होती है या दूसरों के लिए ? ईश्वर स्वयं तो कृतकृत्य हो चुका है, उसकी कोई भी इच्छाएँ शेष नहीं रहीं। अतः वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति या लीला के लिए जगत् का निर्माण नहीं कर सकता। यदि वह दूसरों के लिए सृष्टि
१. (क) न्यायकुसुमांजलि
(ख) न्याय सिद्धान्त मुक्तावली टीका
२. जैसा कि कहा जाता है - अज्ञोजन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्गं वा श्वभ्रमेव वा ॥
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