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३२० कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२). .
संसारीदशा में आत्मा कर्म-परतन्त्र होने से उसके निजी गुणों का विकास भी शरीर, इन्द्रिय, प्राण, मन आदि के आश्रय के बिना नहीं हो सकता। ये भौतिक (पौद्गलिक) द्रव्य धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, आदि की तरह उसके गुण विकास में निमित्त रूप से सहायक बनते हैं, जैसे कि झरोखे से देखने वाले को झरोखा देखने में सहारा देता है। आत्मा की संसारदशा में वर्तमान स्थिति बहुत कुछ शरीर और उससे सम्बद्ध अंगोपांगों के अधीन हो रही है। इसीलिए जैनदर्शन संसारी आत्मा को देह परिमाण वाला, किन्तु देह से स्वतन्त्र मानता है। चूंकि जीव . का वर्तमान विकास जिन आहार, शरीर आदि पर्याप्तियों के सहारे होता है, वे सब पौद्गलिक (भौतिक) हैं, इस निमित्त की अपेक्षा से आत्मा (जीव) को भगवतीसूत्र में तथा धवलाटीका में पौद्गली (पोग्गली) माना है। जीव को यह 'पुद्गल' विशेषण शरीरादि निमित्तों की दृष्टि से दिया गया है, स्वरूप की दृष्टि से नहीं। अतः जैनदर्शन आत्मा को शरीररूप न मानकर, शरीरपरिमाण पृथक् द्रव्य मानता है। इससे कर्मवाद की इस सैद्धान्तिक व्याख्या से भौतिकवाद (भूतवाद) द्वारा किये जाने वाले काल्पनिक निरूपण का निराकरण हो जाता है। पुरुषवाद-मीमांसा
पुरुषवाद का सामान्य अर्थ यह किया जाता है कि पुरुष ही इस जगत् का कर्ता, धर्ता और हर्ता है और प्रलयकाल तक उस पुरुष की ज्ञानादि शक्तियों का लोप नहीं होता। प्रमेयकमलमार्तण्ड में इसे समझाने के लिए एक श्लोक उद्धृत किया गया है। उसका भावार्थ है-"जैसे मकड़ी जाले के लिए, चन्द्रकान्तमणि जल के लिए और वटवृक्ष प्ररोहों-जटाओं के लिए कारण होता है, उसी प्रकार पुरुष भी जगत् के समस्त प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय में निमित्त कारण होता है।"२
पुरुषवाद में दो विचारधाराएँ अन्तर्हित हैं। एक है-ब्रह्मवाद और दूसरी है-ईश्वरवाद (ईश्वरकर्तृत्ववाद)।
ब्रह्मवाद-इसमें ब्रह्म ही जगत् के चेतन-अचेतन, मूर्त-अमूर्त आदि समस्त पदार्थों का उपादान कारण होता है। ब्रह्मसूत्र का' 'जन्माद्यस्य यतः' १. (क) भगवतीसूत्र शतक ८, उ. १0, सू. ३६१ (ख) जीवो कत्ता य वत्ता य पाणी भोत्ता य पोग्गलो।
-धवलाटीका २. उर्णनाभ इवाशूना, चन्द्रकान्त इवाम्भसाम्। प्ररोहाणामिव प्लक्षः, स हेतुः सर्वजन्मिनाम्॥
-उपनिषद् (प्रमेयकमलमार्तण्ड में उद्धृत) पू. ६५ ३. ब्रह्मसूत्र १/१
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