________________
कर्मवाद के अस्तित्व-विरोधी वाद-२
३२१
सूत्र इसी ब्रह्मवाद का सम्पोषक है। उपर्युक्त श्लोक भी ब्रह्मवाद के मन्तव्य को सूचित करता है। ऋग्वेद पुरुषसूक्त में बताया गया है-वह यह (जगत् का) सर्वस्व पुरुष ही है, जो हुआ है, जो होगा, जो अमृतत्व (मोक्ष) का ईश (स्वामी) है, अन्न (आहार) से वृद्धिंगत होता है।' ईशावास्योपनिषद् में उक्त ब्रह्म की गतिविधि के विषय में बताया है कि वह संचरण करता (गतिमान) है, वह संचरण नहीं करता (स्थिर) है, वह दूर भी है, निकट भी, वह जड़ और चेतन सबके अन्तर (भीतर) में व्याप्त है, और इन सबसे बाह्य (पृथक्) भी है। छान्दोग्य-उपनिषद् में अदृश्य ब्रह्म का परिचय दिया गया है कि जगत् में जितना सब (जड़-चेतन) है, वह ब्रह्म ही है, इसलिए इसमें नानात्व नहीं है, ब्रह्म एक और अद्वितीय ही है। लेकिन जो कुछ भी लोग देखते हैं, वह ब्रह्म के प्रपंच (आराम) को देखते हैं, उसे (ब्रह्म को) कोई नहीं देखता।
तर्क की कसौटी पर कसने पर ब्रह्मवाद का यह रूप उपहासास्पद एवं युक्तिविरुद्ध प्रतीत होता है। सर्वप्रथम, यह विचारणीय है कि एक ही ब्रह्मतत्त्व विभिन्न जड़चेतन-पदार्थों के परिणमन में उपादान कारण कैसे बन सकता है ? आधुनिक भौतिक विज्ञान ने अनन्त अणुओं (एटमों) का स्वतन्त्र अस्तित्व मानकर उनके परस्पर संयोग और विभाग से इस जगत् की उत्पत्ति मानी है। यह मत युक्तिसंगत और अनुभवगम्य भी है। जगत् के समस्त पदार्थों को केवल 'माया' कह देने मात्र से अनन्त जड़ पदार्थों तथा अनन्त चेतन पदार्थों (आत्माओं) का पारस्परिक यथार्थ भेद तथा उनके पृथक्-पृथक् अस्तित्व एवं व्यक्तित्व को कैसे नष्ट किया जा सकता है ?
जगत् में अनन्त-अनन्त जीव (आत्माएँ) अपने-अपने कर्मों (वासनाओं तथा संस्कारों) के अनुसार पृथक्-पृथक् विभिन्न पर्यायों को धारण करते हैं। उनका अस्तित्व और व्यक्तित्व अपना-अपना है। एक के भोजन कर लेने से दूसरे की उदरपूर्ति-तृप्ति नहीं हो जाती। एक जीव का सुख और दुःख, बुद्धिहीनता और बौद्धिक प्रखरता, कर्म-कौशल और अकर्मण्यत्व दूसरे के सुख-दुःख आदि नहीं माने जा सकते। इसी प्रकार जड़ पदार्थों के
1. पुरुष एवेद सर्वं यद् भूत, यच्च भाव्यम्। उत्तामृतत्वस्येशाना यदन्नेनातिरोहति॥
-ऋग्वेद पुरुषसूक्त १. यदेजति यन्नेजति यद्रे यदन्तिके।
यदन्तरस्य सर्वस्य, यदुत सर्वस्यास्य बाह्यतः।। -ईशावास्योपनिषद् 1. सर्व वै खल्विदं ब्रह्म, नेह नानाऽस्ति किंचन।
माराम (आयाम) तस्य पश्यन्ति, न तं पश्यति कंचन॥-छान्दोग्य उपनिषद् ३/१४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org