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कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
कर्मवाद के अस्तित्व - विरोधी वाद - १
कर्मवाद को चुनौती देने वाले छह वाद
जैनदर्शन ने विश्व की विविधताओं, विचित्रताओं तथा विभिन्नताओं के कारण के रूप में कर्मवाद को प्रस्तुत किया है । परन्तु विश्व की रचना एवं परिणमनरूप घटना की विचित्रता के कारणों के सम्बन्ध में अनेक वाद दृष्टिगोचर होते हैं। औपनिषदिक युग से पूर्वकाल में वैदिक मनीषियों ने इस विचित्रतामयी सृष्टि, वैयक्तिक विभिन्नताओं, प्राणी की विभिन्न सुखदुःखजनक अनुभूतियों तथा शुभाशुभ प्रवृत्तियों के कारण की खोज एक या अनेक देववाद, यज्ञवाद और ब्रह्मवाद में की। उनकी खोज का मुख्य आधार बाह्य था। ऋग्वेद से भी यह प्रगट नहीं होता कि उस समय विश्ववैचित्र्य अर्थात्-जीवसृष्टि के वैचित्र्य के निमित्त के कारण पर भी विचार किया गया हो। उपनिषदकाल से सृष्टि की पूर्वोक्त विविधताओं का समाधान करने के लिए विभिन्न दार्शनिकों एवं विचारकों ने अपने- अपने मन्तव्य एवं दृष्टिकोण प्रस्तुत किये हैं ।
इस विषय का सर्वप्रथम उल्लेख श्वेताश्वतरोपनिषद्' में मिलता है। वहाँ प्रश्न किया गया है कि इस विश्ववैचित्र्य का क्या कारण है ? कहाँ से हम सब उत्पन्न हुए हैं? किसके बल पर हम सब जीवित हैं ? हम कहाँ स्थित हैं ? अपने सुख - दुःख में किसके अधीन होकर हम प्रवृत्त होते हैं ? उत्तर दिया गया—“काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पृथ्वी आदि (पंचभूत) और पुरुष ये जगत् के कारण (योनि - उत्पत्ति के मूल) हैं, यह चिन्तनीय है। इन सबका संयोग भी कारण नहीं है। सुख - दुःख हेतु होने से आत्मा भी जगत् को उत्पन्न करने में असमर्थ है। "
इस श्लोक से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उस समय के चिन्तक विश्ववैचित्र्य के कारण की खोज में तत्पर हो गए थे किन्तु वे किसी एक
१. 'कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा, भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम् । संयोग एषां न स्वात्मभावादात्माऽप्यनीशः सुख-दुःखहेतोः ॥'
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- श्वेताश्वतरोपनिषद् १ / १/२
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