________________
कर्मवाद के अस्तित्व - विरोधी वाद - १
३०३
निर्णय पर नहीं पहुँच सके थे कि काल आदि में से कौन-सा वाद माना जाए? इसलिए उन्होंने इस उपनिषद् में इन सब वादों के अलग-अलग नाम गिनाकर इनमें से किसी एक को अथवा सबके संयोग को मानने वाले वादों का प्रतिपादन मात्र किया है, अपना निर्णय नहीं दिया है। इससे मालूम होता है कि विश्ववैचित्र्य की व्याख्या उस समय के चिन्तक अपनेअपने दृष्टकोण से करते थे।
यह तो निश्चित है कि प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण अवश्य होता है। विश्व रचना या विश्ववैचित्र्यरूप कार्य (परिणाम) के पीछे भी कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए। यद्यपि जैनदर्शन में विश्ववैचित्र्य की व्याख्या कर्मवाद के आधार पर की गई, तथापि निम्नोक्त पाँच कारणों (वाद) पर विचार करना अनिवार्य बताया है- (१) काल, (२) स्वभाव, (३) नियति, (४) कर्म और (५) पुरुषार्थ । एकान्तवाद मिथ्या है
इन वादों के पुरस्कर्ताओं ने अपने-अपने वाद को ही प्रधानता दी। इन पाँचों वादों का परस्पर भयंकर संघर्ष रहा। फलतः इन सभी ने परस्पर एक-दूसरे के वाद का खण्डन और अपने माने हुए वाद के द्वारा ही कार्यसिद्धि का मण्डन किया । इसलिए अपने-अपने वाद के एकान्त आग्रह के कारण ये सभी वाद एकांगी हो गए; क्योंकि ये प्राणियों के सुख-दुःख का कारण एकांगी रूप से बताते हैं । श्वेताश्वतरोपनिषद् के अलावा, सूत्रकृतांग, सन्मतितर्क, महाभारत, गोम्मटसार, अंगुत्तरनिकाय, भगवद्गीता एवं महाभारत के शान्तिपर्व आदि में भी काल आदि वादों के सम्बन्ध में चर्चा उपलब्ध होती है। कालवाद-मीमांसा
. श्वेताश्वतर उपनिषद् आदि में उक्त वादों में कालवाद प्राचीन प्रतीत होता है। अथर्ववेद में एक कालसूक्त है, उसमें बताया गया है कि काल ने पृथ्वीको उत्पन्न किया। काल के आधार पर सूर्य तपता है । काल के आधार पर ही समस्त भूत रहते हैं। काल के कारण ही नेत्र देखते हैं । काल ही ईश्वर है। वह प्रजापति का भी पिता है। इस प्रकार काल को समग्र सृष्टि का मूलाधार माना गया है। काल को समस्त प्राणियों के सृजन-संहारादि का कारण बताते हुए 'महाभारत' में भी कहा गया है - "काल ही समस्त
१. अथर्ववेद कालसूक्त १९/५३-५४
२. कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः ।
कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
- महाभारत १/२४८
www.jainelibrary.org