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३०४ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
भूतों (प्राणियों) का सृजन करता है, वही संहार करता है, सभी के सो जाने पर भी काल जाग्रत रहता है। काल दुरतिक्रम है।" महाभारत के आदिपर्व (१/२७२-२७६) में कालवाद के महत्व का विस्तृत विवेचन है। जगत् के समस्त भाव, अभाव, सुख और दुःख कालमूलक हैं। काल ही संसार के सारे शुभाशुभ विकारों-अतीत-अनागत-वर्तमान भावविकारों का उत्पादक एवं कारण है। यह दुरतिक्रम महाकाल जगत् का आदि-कारण है। उसमें यहाँ तक कहा गया है कि कर्म अथवा यज्ञ-यागादि अनुष्ठान. या किसी पुरुष द्वारा मनुष्य को सुख-दुःख प्राप्त नहीं होता, अपितु काल द्वारा ही। प्राणी सब कुछ प्राप्त करता है। समग्र कार्यों में काल ही समान रूप से कारण है। तथा काल ही विश्व की विचित्रता का मूल कारण है, यही समग्र जीवसृष्टि के जीवन-मरण आदि का आधार है, इत्यादि।
दार्शनिक काल में नैयायिक आदि दार्शनिकों ने जगत् के प्राणियों के जनक के रूप में ईश्वरादि कारणों के साथ काल को भी साधारण कारण माना है। ___गोम्मटसार' में काल को सब की उत्पत्ति और विनाश का तथा सोते हुए प्राणियों को जगाने का कारण बताया गया है। शास्त्रवार्तासमुच्चय में कहा गया है-बटलोई आदि साधनों के होने पर भी अनुकूल काल के बिना मूंग भी पक नहीं सकते। तथा जीवों का गर्भ में प्रवेश, किसी अवस्था (वय आदि) की प्राप्ति एवं शुभाशुभ का अनुभव आदि समस्त घटनाएँ काल पर निर्भर हैं।
काल के प्रभाव से ही संसार का प्रत्येक कार्य (क्रिया) हो रहा है। जिस वस्तु, बात या बनाव का समय पक जाता है, तभी वह वस्तु, बात या बनाव बनता है। समय आने पर ही अमुक वस्तु पैदा होती है, और समय पूरा होते ही नष्ट हो जाती है। बालक या बालिका अमुक मास के होने पर ही बोलने लगते हैं, जन्मते ही तो वे सिर्फ रो सकते हैं। अमुक वय होने पर ही बालक स्वयं चल-फिर सकता है, जन्म होने के बाद शीघ्र ही वह चल-फिर नहीं सकता। अमुक वर्ष का होने पर ही पुरुष के दाढ़ी-मूंछे आती हैं। दूध में
१. महाभारत, शान्तिपर्व अध्याय २५, २८, ३२, ३३ आदि २. जन्यानां जनकः कालः, जगतामाश्रयो मतः। -न्याय-सिद्धान्त-मुक्तावली का. ४५ ३. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गाथा ८७९ ४. (क) किञ्च कालादृते नैव मुद्गपक्तिरपीक्ष्यते।
स्थाल्यादि-संनिधानेऽपि, ततः कालादसौ मता॥ -शास्त्रवार्ता समुच्चय २/५५ (ख) शास्त्रवार्ता समुच्चय २/१६५
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