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२९४ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) को क्षय करने के सन्दर्भ में है। विशेषतः विपाक-विचय और अपायविचय, इन दोनों को भलीभांति समझ लेना ही कर्म का मर्म समझ लेना है, जिसे कर्मशास्त्र बतलाता है।
दूसरी दृष्टि से सोचा जाए तो कर्मशास्त्र अध्यात्मशास्त्र का सहचर है, अथवा दोनों अन्योन्याश्रित हैं। दोनों का एक दूसरे के बिना कार्य नहीं चल सकता। अध्यात्म-साधना का उद्देश्य भी यही है कि किसी भी परिणाम-फल या वर्तमान अवस्था के अनादि (अतीतकालिक) हेतु को. खोजना और उसका अन्त करना है।
किसी भी आचरण या व्यवहार के पीछे, अथवा आचरण या व्यवहार की अस्वाभाविकता (असाधारणता) के पीछे जो भी कारण या हेतु है, उसे खोजने के लिये प्रेरित करना अध्यात्मशास्त्र के सहायक के रूप में कर्मशास्त्र का काम है। अकेले अध्यात्मशास्त्र से यह कार्य नहीं हो सकता। कर्मशास्त्र इससे भी आगे बढ़कर यह करता है कि जो कारण व्यक्ति के आचरण या. व्यवहार में विसंगति, विषमता या अस्वाभाविकता पैदा करता है, एकरूपता, समरसता या समतुल्यता (सन्तुलन) नहीं रहने देता, उस हेतु या कारण का अन्त कैसे-कैसे किया जा सकता है ? इस तथ्य का अन्वेषण करना कर्मशास्त्र का उद्देश्य है।।
निष्कर्ष यह है कर्मशास्त्र कार्य-कारण भाव की सम्यक् मीमांसा करके जीव को उक्त पूर्वकृत कर्मरूप कारण से मुक्त होने या उसका अन्त करने की प्रेरणा देता है।
इसके अतिरिक्त ध्यान, धारणा, चित्तसमाधि, समता, आत्मशान्ति, आत्मबल, सन्तोष, आत्मिक आनन्द एवं सम्यग्ज्ञान आदि योगशास्त्र के मुख्य प्रतिपाद्य विषयों का वर्णन भी कर्मशास्त्र कर्मक्षय करके आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करने के सन्दर्भ में करता है।
योगशास्त्र में चित्तवृत्तिनिरोध के सन्दर्भ में तथा मानसशास्त्र में मनोविज्ञान के सन्दर्भ में मन के पूरे विश्लेषण एवं मन की सूक्ष्म से सूक्ष्म प्रक्रियाओं और प्रवृत्तियों की जानकारी दी गई है, जबकि कर्मशास्त्र मन की गहनतम अवस्था के कारणों की मीमांसा करके उन कारणों से होने वाले परिणामों का विश्लेषण करने के साथ-साथ उक्त कारणों के निवारण का पूर्ण उपाय बताकर, मन-वचन-काया की प्रवृत्ति का पूर्ण निरोध (योगनिरोध) बताता है और आत्मा की पूर्णशुद्ध निष्कम्प अवस्थापरमात्मभावापन्न दशा का वर्णन करता है।
इस प्रकार कर्मशास्त्र नानाविध अध्यात्मशास्त्रीय विचारों की खान है।
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