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२९६ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) को अपना लेता है। समन्वयवादी जैनाचार्य हरिभद्रसूरि के शब्दों में "आग्रही कुदार्शनिक युक्तियों को उसी ओर खींचता है, जहाँ (जिस विषय में) उसकी बुद्धि, अभिप्राय या मत पहले से ही बना होता है, किन्तु अनाग्रही, पक्षपात एवं पूर्वाग्रह से रहित सच्चा दार्शनिक अपना मत उसी के अनुसार बनाता है, जहाँ युक्ति जाती है, अर्थात्-जो युक्तिसिद्ध हो पाता
है।"
अतः हठाग्रही व्यक्ति पूर्वाग्रहग्रस्त होकर किसी दूसरे की अच्छी युक्तियुक्त और कल्याणकारी बात को भी विपरीतरूप में ग्रहणं करता है। अच्छी से अच्छी हितकर एवं युक्तिसंगत तथ्य में से भी वह अपनी असम्यक्-दृष्टि द्वारा दोष और त्रुटि ढूंढ़ने का प्रयत्न करता है। कर्मवाद पर मुख्यतः तीन प्रहार
जो भी हो, जैनदर्शनसम्मत कर्मवाद पर सृष्टिकर्तृत्ववादियों द्वारा मुख्यतः तीन प्रहार किये जाते हैं
प्रथम प्रहार-मकान, महल, घर, पट, यंत्र आदि विश्व की छोटीबड़ी सभी वस्तुएँ जब किसी न किसी व्यक्ति द्वारा निर्मित होती हैं, तब समग्र सृष्टि (जगत) जो कार्यरूप दिखाई देती है, प्राकृतिक वन, वृक्ष, लताएँ, फल, फूल, पहाड़, नदियाँ तथा कीट, पतंग, पशु, पक्षी, मानव आदि विविध प्राणिगण जो दृष्टिगोचर होते हैं, उन सबका भी कोई न कोई उत्पादक, निर्माता या रचयिता होना चाहिए। वह उत्पादक ईश्वर के सिवाय और कोई हो नहीं सकता। .
द्वितीय प्रहार-सभी प्राणी अच्छे ही कर्म करते हों, ऐसा नहीं है। अधिकांश प्राणी बुरे कर्म भी करते हैं। अच्छे कर्मों का फल तो सभी चाहते हैं, मगर बुरे कर्म का फल कोई नहीं चाहता। और कर्म अपने आप में जड़ होने से किसी चेतन की प्रेरणा के बिना फल देने में असमर्थ हैं। ऐसी स्थिति में कर्मवादियों को मानना ही चाहिए कि ईश्वर ही प्राणियों को कर्मफल भोगवाने में कारणरूप है। __ तृतीय प्रहार-ईश्वर केवल एक ही व्यक्ति होना चाहिए, जो सदा से मुक्त हो, और मुक्त जीवों की अपेक्षा भी उसमें कुछ विशेषता हो। वही सर्वशक्तिमान, समर्थ, नित्य, स्वतंत्र, सर्वाधिपति एवं सर्वज्ञ हो। इसलिए कर्मवाद का यह मानना उचित नहीं है, कि कर्म से छूट जाने पर सभी जीव १. आग्रही वत निनीषति युक्ति, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा।
पक्षपात रहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम्।। -हरिभद्रसूरि २. वादी भद्रं न पश्यति
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