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कर्मवाद पर प्रहार और परिहार
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परन्तु बुरा कर्म करे और फिर चाहे कि उसका फल न मिले, तो केवल न. चाहने से उक्त दुष्कर्म का फल मिलने से रुक नहीं जाता। जैसे-सामग्री इकट्ठी होने पर कार्य अपने-आप होने लगता है, इसी प्रकार चोरी आदि दुष्कर्मों के लिए विचार करने, तदनुरूप साधन, सहायक और उपाय जुटाने पर, एवं चोरी के लिए दृढनिश्चयपूर्वक चल पड़ने पर वह उक्त चोर द्वारा स्वतः होने लगती है।
इसी प्रकार एक व्यक्ति सूर्य के प्रचण्ड ताप में खड़ा हो, मिर्च-मसाला भरी हुई गर्म चीज खा रहा हो, और फिर वह चाहे कि मुझे पानी की प्यास न लगे तो क्या किसी तरह वह जलपिपासा रुक सकती है ? कदापि नहीं। इसी प्रकार दुष्कर्म का फल न चाहने पर भी चेतनाशील व्यक्ति के साथ कर्म का संयोग होने पर उसका फल मिले बिना नहीं रहता।
यदि ईश्वरकर्तृत्ववादी यह कहें कि ईश्वर की इच्छा से प्रेरित होकर ही कर्म अपना फल प्राणियों पर प्रगट करते हैं, कर्म सीधे ही (Directly) फल नहीं दे देते, तो यह कथन भी युक्तियुक्त नहीं है। किसी ने मिर्च खाने की क्रिया की, उस समय क्या मुँह जलाने ईश्वर आएगा ? उसे तो तत्काल उक्त क्रिया से होने वाले कर्म का फल प्राप्त होता है। वास्तव में कर्म करने के समय में जीव के परिणामों के अनुसार स्वतः ही उसमें ऐसे संस्कार पड़ जाते हैं, जिनसे प्रेरित होकर कर्मकर्ता कर्म का फल स्वयमेव भोगता है। उसमें ईश्वर को कर्मफल भुगवाने के लिए बीच में डालने की आवश्यकता नहीं रहती। इसी तथ्य का समर्थन भगवद्गीता ने किया है।' ___अगर ईश्वर प्रत्येक प्राणी के प्रति दिन और प्रति रात्रि में होने वाले हजारों-लाखों कर्मों का फल देने लगेगा, तो उसे संसार के अनन्त-अनन्त जीवों के कर्मों का लेखा-जोखा रखना पड़ेगा, फिर फल के विषय में सोचने, फल भुगवाने, तथा जीव द्वारा फल भोगते समय भी परिणामों के अनुसार बंधने वाले कर्मों का फल भुगवाने में ईश्वर को इतना समय कहाँ मिलेगा? फिर वह अपने अनन्त ज्ञान-दर्शन-अनन्तशक्ति और आनन्दरूप परम आत्मिक ऐश्वर्य से रहित हो जाएगा। उस पर नाना प्रकार के आक्षेप भी आएँगे, वह सांसारिक प्राणियों की तरह कर्मों से लिप्त होकर फिर जन्म-मरण रूप संसार में परिभ्रमण करने लगेगा। अतः जीव कर्म करने में १. न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु । . न कर्म-फल-संयोग, स्वभावस्तु प्रवर्तते॥ -भगवद्गीता अ. ५ श्लो. १४ प्रभु (ईश्वर) लोक (जगत) के कर्तृत्व और कर्मों का सृजन नहीं करता, न ही कर्मफल का संयोग कराता है। यह जगत् अपने स्वभावानुसार प्रवृत्त होता है।
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