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कर्म अस्तित्व का मुख्य कारण : जगत्वैचित्र्य १३५
बीज का नाम ही कर्म है । इस कर्म - बीज के कारण ही जीव की ये नाना उपाधियाँ हैं ।
स्थविर नागसेन ने फिर तथागत बुद्ध के वचनों को प्रस्तुत करते हुए कहा—“राजन् ! भगवान् (तथागत) ने भी कहा है कि हे मानव ! सभी जीव अपने-अपने कर्मानुसार फल भोगते हैं । सभी जीव अपने कर्मों के स्वयं मालिक हैं, वे अपने कर्मों के अनुसार ही नाना योनियों में उत्पन्न होते हैं । स्वकृतकर्म ही अपना बन्धु है, स्वकर्म ही अपना आधार है । कर्म से ही जीव उच्च-नीच होते हैं । ""
जैनदृष्टि से मानव-विचित्रता का कारण : कर्म
जैनकर्मशास्त्रकार श्री देवेन्द्रसूरि ने स्पष्ट शब्दों में इस तथ्य को स्वीकार किया है कि राजा-रंक, बुद्धिमान्-मूर्ख, सुरूप-कुरूप, धनिक-निर्धन, बलिष्ठ - निर्बल, रोगी नीरोगी, तथा भाग्यशाली - अभागा, इन सब में मनुष्यत्व समानरूप से होने पर भी जो अन्तर दिखाई देता है, वह कर्म-कृत है और वह कर्म जीव (आत्मा) के बिना होना युक्तिसंगत नहीं है।' 'पंचाध्यायी' में भी इसी सिद्धान्त का समर्थन किया गया है - "संसार में एक व्यक्ति दरिद्र है और एक धनिक है, यह कर्म के ही कारण है। " ३ प्राणिमात्र की विभिन्नता का कारण भी कर्म
केवल मनुष्यों की विभिन्नता ही नहीं, प्राणिमात्र की विभिन्नता और विषमता का कारण कर्म को माने बिना कोई चारा नहीं है । पशुओं, पक्षियों तथा कीट-पतंगों की योनियाँ भी इस विषमता से बच नहीं सकी हैं। उदाहरण के लिए- कुत्तों को ही देखिये । अधिकांश कुत्ते ऐसे हैं, जो पेट भरने के लिए इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं, जिनके शरीर पर खुजली और घाव हो रहे हैं, फिर भी बेचारे मार खाते हुए घूमते हैं; दूसरे ऐसे भी कुत्ते हैं, जिनका पालन-पोषण राजकुमारों की तरह होता है, वे मोटरों में बैठे
१ (क) मिलिन्द प्रश्न पृ. ८०-८१
(ख) भासितं येतं महाराज ! भगवता - "कम्मस्सका माणवसत्ता, कम्मदायादा, कम्मयोनी, कम्मबंधू, कम्मपटिसरणा, कम्मं सते विभजंति, यदिदं हीन - पणीतता याति । - मिलिंद प्रश्न ३/२
२ क्ष्माभृद्- रंकयोर्मनीषि - जड्योः सद्रूप - नीरूपयोः । श्रीमद्-दुर्गतयोर्बलाबलवतो नीरोग - रोगार्त्तयोः । सौभाग्याऽसुभगत्व-संगमजुषोस्तुल्येऽपि नृत्वेऽन्तरम् । यत्तत्-कर्म- निबन्धनं, तदपि नो जीवं विना युक्तिमत् ॥
- कर्मग्रन्थ प्रथम, टीका (देवेन्द्रसूरि कृत )
३ एको दरिद्र एकोहि श्रीमानिति च कर्मणः || - पंचाध्यायी २ / ५
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