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कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
विभिन्न कर्मवादियों की समीक्षा :
चार पुरुषार्थों के सन्दर्भ में
चार पुरुषार्थ और उनके स्वरूप
भारतीय संस्कृति के पुरस्कर्ताओं ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-ये चार पुरुषार्थ माने हैं और मानव-जीवन को व्यावहारिक दृष्टि से सुचारु रूप से सफल बनाने के लिए इन चार पुरुषार्थों की ओर उन्होंने संकेत किया है। अर्थ-पुरुषार्थ का अर्थ है-जीवनयापन के लिए विविध साधनोंपदार्थों का जुटाना और काम-पुरुषार्थ का अर्थ है-उन जुटाए हुए पदार्थों अथवा इन्द्रियों और मन से ग्रहण किये हुए विभिन्न सजीव-निर्जीव 'पर'(आत्म-बाह्य) पदार्थों का राग-द्वेष एवं कषायपूर्वक उपभोग करना। धर्मपुरुषार्थ का यहाँ अभिप्रेत अर्थ है-शुभ या कुशल कर्म (कर्तव्य) करना, नैतिक दृष्टि से उपादेय, समाजमान्य शुभ कर्मों को करना, पुण्य कार्य करना। धर्म-पुरुषार्थ यहाँ कर्मक्षय (निर्जरा) या कर्मनिरोध (संवर) करने के अर्थ में विवक्षित नहीं है। चौथे मोक्ष-पुरुषार्थ का अर्थ है-पूर्वकृत कर्मों का क्षय, नवीन आते हुए कर्मों का निरोध करने हेतु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप में पुरुषार्थ करना।
मोक्ष-पुरुषार्थ के मार्ग (साधन) के रूप में तत्त्वश्रध्दा तथा देव-गुरुधर्म एवं शास्त्र पर श्रद्धा द्वारा सम्यग्दर्शनाचरण, शास्त्रीय ज्ञान, स्वाध्याय आदि द्वारा ज्ञानाचरण, अहिंसा-सत्य आदि व्रतों-महाव्रतों तथा क्षमा आदि दशविध उत्तम धर्मों की या संयम की साधना करना चारित्राचरण एवं द्वादशविध तपश्चरण का विधान है। तपश्चरण का समावेश चारित्राचरण में हो जाता है।
१. (क) जैसे कि भ. महावीर ने कहा है
नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा ।
एस मग्गोत्ति पनत्तो, जिणेहि वरदंसिहि ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र अ. २८ गा. २ (ख) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः । -तत्त्वार्थसूत्र अ. १ सू. १
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