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२५८ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
पार्श्वनाथ ने कर्मवाद का तिरोभाव दूर किया
उस समय के प्रसिद्धि प्राप्त तापस कमठ के आडम्बर और अज्ञानमूलक तप तथा उसके पाखण्ड के प्रभाव को देखकर एक दिन पार्श्वकुमार अपने सेवकों के साथ उसके आश्रम में पहुँच गए। उस समय वह पंचाग्नि से आतापना ले रहा था। बीच-बीच में आग की आंच मंदी होते ही वह उसमें बड़े-बड़े लक्कड़ बिना देखे - भाले ही झौंकता जा रहा था। उसके चारों ओर लोगों का जमघट लगा हुआ था।
राजकुमार पार्श्वनाथ ने अपने ज्ञान से लक्कड़ में छिपे हुए सर्प को आग की लपटों में छटपटाते देख, उनके करुणाशील हृदय ने तापस से कहा - "तपस्वी! इन आग की लपटों में पंचेन्द्रिय प्राणियों को होमकर आत्मकल्याण करना चाहते हो? यह तो निरा अज्ञान है, दयाशून्य क्रियाकाण्ड में धर्म नहीं, अपितु प्राणिहिंसा से कठोर दुष्कर्मों का बन्ध है।"
यह सुनते तापस की भृकुटियाँ तन गई, वह अहंकार से गर्ज उठा-' 'राजकुमार! तुम्हें क्या पता धर्म और कर्म का ? तुम अभी अबोध बालक हो। मैं कोई हिंसा नहीं कर रहा हूँ।'
पार्श्वनाथ ने जब कहा कि इस लक्कड़ में सर्प जल रहा है, छटपटा रहा है। तो उसके कथन को असत्य बताते हुए तापस ने कहा - "तुम द्वेषवश मेरी साधना को भंग करना चाहते हो। मेरे प्रभाव को देखकर तुम्हें ईर्ष्या हो रही है। "
पार्श्वकुमार ने विवाद में समय न बिताकर शीघ्र ही अपने सेवकों को जलते लक्कड़ को सावधानी से चीरने की आज्ञा दी। लक्कड़ चीरा गया तो उसमें से अग्नि की तीव्र ज्वालाओं में जलता हुआ सर्प बाहर निकल आया। वह अन्तिम सांस ले रहा था। पार्श्वकुमार ने सर्प को नवकार मंत्र सुनाकर सम्बोधित करते हुए कहा - " नागराज ! मन में शान्ति और शुभ भावना रखो। नवकार मंत्र ध्यान से सुनो, तुम्हारी सद्गति अवश्य होगी । "
. झुलसते हुए सर्प को देखकर तापस का चेहरा फक्क हो गया। उसकी अन्धभक्ति करने वाले लोग भी अब उसकी दयाहीनता और अज्ञानता की भर्त्सना करने लगे। राजकुमार पार्श्व पर उसे बहुत ही क्रोध आया। पर राजकुमार ने उसे सान्त्वना देकर शान्त किया ।
इस अपमान और पराजय से तिलमिलाकर वह वाराणसी से डेरा उठाकर कहीं दूर दूसरे जंगल में चला गया। वहाँ भी वह कठोर अज्ञान तप और देहदण्ड की क्रियाएँ करने लगा। मन में पार्श्वकुमार से बदला लेने की क्रूर भावना करता रहा। अन्त में, रौद्रभावों के साथ मरकर वह 'मेघमाली' नामक असुरकुमार देव बना ।
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