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कर्मवाद का तिरोभाव-आविर्भाव : क्यों और कब २६५
ये ग्यारह ही दिग्गज विद्वान् भगवान् महावीर के धर्म-संघ (गण) में सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र एवं तप की सुप्रतिष्ठा एवं चतुर्विध संघ की सुव्यवस्था करने हेतु 'गणधर' पद से अलंकृत हुए।
केवलज्ञान होते ही चतुर्विध संघ स्थापना के पश्चात् भगवान् कर्मविज्ञान सम्बन्धी अपनी अनुभवज्ञाननिधि सार्वजनिकरूप से वितरित करने लगे। उन्होंने सांसारिक जीवों की विविध आधि, व्याधि, उपाधि, विविध अवस्थाओं का मूल कर्म को बताया। कृतकर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं हो पाता। आत्मा से परमात्मा के पृथक्भाव को भी कर्मजनित बताया। जहाँ-जहाँ भी अवसर मिला, अथवा जो-जो जिज्ञासु उनके या उनके संघ के साधुओं के सम्पर्क में आये, वहाँ-वहाँ इन्होंने यज्ञवाद, देववाद या ईश्वरकर्तृत्ववाद के सम्बन्ध में युक्तिसंगत चर्चा की और 'कर्मवाद की ही प्रतिष्ठा की। ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और वैश्य वर्गों को जन्म से न मान कर कर्म से मानने के सिद्धान्त का निरूपण किया। उत्तराध्ययन
और भगवतीसूत्र में यत्र-तत्र कमवाद के आविष्करण की चर्चा मिलती है। कर्मवाद के तिरोभाव होने में तीन प्रबल कारण
भगवान् महावीर ने देखा कि भारत में कर्मवाद के तिरोभाव होने में तीन प्रबल भ्रान्त मान्यताएँ प्रचलित हैं जिनको लेकर सामान्य जनसमूह ही नहीं, विद्वान पण्डित वर्ग भी भ्रान्त है। उन तीन मान्यताओं को युक्ति, अनुभूति और प्रमाणों से निराकरण करके और जनता को अनेकान्त (सापेक्ष) दृष्टि से सत्य समझाने के लिए वे कटिबद्ध हुए। कर्मवाद के आविर्भाव में ये तीन मान्यताएँ प्रबल बाधक थीं-(१) वैदिक परम्परां की ईश्वर-सम्बन्धी भ्रान्त मान्यता, (२) बौद्ध धर्म के एकान्त क्षणिकवाद की अयुक्त मान्यता और (३) आत्मा का जड़तत्त्वों के अन्तर्गत स्वीकार।' ईश्वर कर्तृत्ववाद की मान्यता में तीन मुख्य भूले ___भग़वान् महावीर के युग में जैन के अतिरिक्त वैदिक और बौद्ध ये दो धर्म भी भारतवर्ष में मुख्य थे। परन्तु दोनों के सिद्धान्त मुख्य-मुख्य विषयों में नितान्त पृथक् थे। वेदों, ब्राह्मणग्रन्थों, उपनिषदों, स्मृतियों में तथा वेदानुगामी कतिपय अन्य दर्शनों में ईश्वर सम्बन्धी ऐसी कल्पनाएँ थीं, जो युक्ति, सूक्ति, अनुभूति और प्रामाणिकता की कसौटी पर खरी नहीं उतर रही थीं। जैसा कि ऋग्वेद में कहा गया है-"उस विधाता (ब्रह्मा
..१.. कर्मग्रन्थ प्रथम भाग (पं. सुखलाल जी) की प्रस्तावना पृ. ९
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