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२७४ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
था - कषाय प्राभृत (कसाय - पाहुड) । इन दोनों प्राभृतों (पाहुडों) में भी कर्म से सम्बन्धित विभिन्न पहलुओं पर सांगोपांग विशद विवेचन था ।
चतुर्दश विभागों में विभक्त पूर्वविद्या का यह (कर्मवाद - सम्बन्धी) विभाग सबसे बड़ा, अतीव महत्त्वपूर्ण एवं सबसे पहला था । कर्मवादसम्बन्धी इन पूर्वशास्त्रों का अस्तित्व तब तक माना जाता है, जब तक पूर्वविद्या का विच्छेद नहीं हुआ । श्रमण भगवान् महावीर के निर्वाण के नौ सौ अथवा एक हजार वर्ष तक पूर्वविद्या सर्वथा विच्छिन्न नहीं हुई थी । अतः यहीं से ही कर्मवाद के समुत्थान एवं विकास का प्रारम्भ समझना चाहिए।'
यद्यपि काल के प्रभाव से पूर्वविद्यागत ये मूल महाशास्त्र विस्मृति और विलुप्ति के गर्भ में चले गए हैं। कालक्रम से उक्त पूर्वविद्या का ह्रास हो जाने पर भी आज हमारे समक्ष उपलब्ध कर्मवाद सम्बन्धी साहित्य पूर्वगत कर्म महाशास्त्र के आधार पर रचित साहित्य है। इस समय श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही जैनधर्म - शाखाओं के साहित्य में पूर्वात्मक कर्मशास्त्र का मूल अंश उपलब्ध नहीं है। फलतः कर्मशास्त्र सम्बन्धी साहित्य के परवर्ती रचयिताओं को कर्मवाद - विषयक कितने ही तथ्यों की व्याख्या प्रसंग-प्रसंग पर छोड़ देनी पड़ी है। साथ ही, कई स्थलों पर विसंवादी प्रतीत होने वाले कर्मतत्त्व सम्बन्धी वर्णन श्रुतधरों, श्रुतकेवलियों अथवा केवलज्ञानियों पर छोड़ दिये गए हैं। मूल के आधार पर रचित कर्म - साहित्य
वस्तुतः मूल मूल ही है। उसके आधार पर रचित साहित्य मूल की समानता नहीं कर सकता। समय के प्रभाव से मूल वस्तु में कुछ न कुछ परिवर्तन होना स्वाभाविक है। समय के प्रभाव से जैनकर्मसिद्धान्त विषयक साहित्य के पुरस्कर्त्ता आचार्य श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गए थे। भ. महावीर के बाद ऐसा संकटापन्न मध्यवर्ती काल आया—बारह-बारह वर्ष के दो दुष्कालों ने जैनकर्मविद्या के मर्मज्ञों की स्मृति, मति एवं धारणाशक्ति तथा पल्लवितशक्ति छिन्न-भिन्न कर दी थी ।
इसके अतिरिक्त आगमों एवं पूर्वो का जो कुछ भी ज्ञान था, वह श्रुत-परम्परा से चला आ रहा था। अभी तक वह लिपिबद्ध नहीं किया गया था। इसलिए बहुत सम्भव है, इस विकट परिस्थिति के कारण पूर्वगत कर्मशास्त्रीय विद्या के मूल प्रवर्तक की भाषा और शैली से बाद के दोनों जैन सम्प्रदायों के कर्मशास्त्रज्ञ आचार्यों की शास्त्रीय भाषा और प्रतिपादन शैली में कुछ अन्तर आ गया हो। परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि पूर्वगत कर्मविद्या के आधार पर रचित कर्मवाद - सम्बन्धी साहित्य में वर्णित
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