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कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
संहिताग्रन्थों में भले ही 'कर्मवाद' या 'कर्मगति' आदि शब्दों का प्रयोग न हो, किन्तु उनमें कर्म से सम्बन्धित कुछ तथ्यों का प्रतिपादन अवश्य हुआ है। 'ऋग्वेद' में यह वर्णन है कि पूर्वजन्म के निकृष्ट कर्मों के भोग के लिए जीव किस प्रकार वृक्ष, लता आदि स्थावर-शरीरों में प्रविष्ट होता है। वैदिक मंत्रों में यह भी वर्णन है कि पूर्वजन्म के दुष्कर्मों के कारण ही लोग पापकर्म में प्रवृत्त होते हैं। 'वामदेव' ने अपने अनेक पूर्वजन्मों का वर्णन भी किया है। कतिपय वेदमंत्रों में संचित और प्रारब्ध कर्मों का भी संकेत है। साथ ही यह भी कहा गया है कि श्रेष्ठकर्म करने वाले लोग देवयान से ब्रह्मलोक में जाते हैं, और साधारण कर्म करने वाले पितृयान से चन्द्रलोक में जाते हैं। कितने ही मंत्रों में स्पष्ट रूप से यह निरूपण है कि कर्मों के अनुसार ही जीव अनेक बार संसार में जन्म लेता है और मरता है। शुभ कर्म करने से अमरत्व की प्राप्ति होती है। कई वेदमंत्रों में पूर्व-जन्मकृत पापकृत्यों से तथा परकृत पापों से मुक्त होने के लिए अथवा बचने के लिए मानवों द्वारा देवों से प्रार्थना की गई है। निम्नोक्त मंत्र इसी तथ्य को प्रमाणित करते हैं
'मा वो भुजेमान्यजातमेनो।" "मा वा एनो अन्यकृतं भुजेम ॥"
'हम अन्य जन्म के पाप को न भोगें, और न ही अन्य-कृत पाप को भोगें।'
इन मंत्रों से यह भी परिलक्षित होता है कि वैदिककाल मान्य देवों से प्रार्थना करने से जीव अपने पूर्वजन्मकृत पाप के फल- भोग से तथा अन्यजीवकृत पापों के फल-भोग से बच सकता था। यद्यपि मुख्यरूप से कर्मसिद्धान्त का नियम यह है कि जो जीव कर्म करता है, वही उसका फल भोगता है, चाहे वे कर्म पूर्वजन्मकृत हों, चाहे इस जन्मकृत हों। परन्तु यहाँ देववाद की मान्यता से प्रभावित वैदिक लोग मानते थे कि विशिष्ट शक्ति के निमित्त से एक जीव के कर्मफल को दूसरा भी भोग सकता है। इसके अतिरिक्त देवों के विशेषण के रूप में ऋग्वेदसंहिता में कतिपय मंत्रों का उल्लेख मिलता है, जो कर्म से सम्बन्धित हैं। जैसे- शुभस्पतिः' (शुभकर्मों के रक्षक) "धियस्पतिः' (बौद्धिक सत् कार्यों के रक्षक), विचर्षणिः' 'विश्वचर्षणिः' (शुभ और अशुभ कार्यों के द्रष्टा) तथा विश्वस्य कर्मणो धर्ता (समस्त कर्मों के आधार) इत्यादि पद कर्मवाद के बीजरूप में व्यवहत हुए हैं।
इन और ऐसे ही अन्य प्रमाणों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि वेदों में कर्म-सम्बन्धी मन्तव्यों का पूर्णरूप से अभाव तो नहीं है, परन्तु देववाद, यज्ञवाद एवं पुरोहितवाद के प्राबल्य से कर्मवाद का
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