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कर्मवाद के समुत्थान की ऐतिहासिक समीक्षा
२७५ तत्त्वज्ञान और तात्त्विक व्याख्यान में दोनों परम्पराओं का प्रतिपादन समान रहा। मूल तत्त्वों और तत्त्व - प्ररूपणा में कोई अन्तर नहीं पड़ा ।
हाँ, ग्रन्थकारों के क्षयोपशम के अनुसार वस्तुवर्णन एवं तत्त्वों के विवेचन में विशदता-अविशदता, सुगमता दुर्गमता या न्यूनाधिकता अवश्य हुई है और होनी सम्भव है। किन्तु दोनों सम्प्रदायों के महान् मनीषियों द्वारा रचित विपुल कर्मसाहित्य को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने कर्मसिद्धान्त का गौरव कम किया है। इस पर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि कर्मवाद का उत्तरोत्तर समुत्थान और विकास जैन मनीषियों ने किस प्रकार किया है। यही कर्मविषयक विपुल - साहित्य जैनदर्शन की बहुमूल्य निधि है ।
नयवाद आदि के समान कर्मवाद का समुत्थान भी भ. महावीर से
वर्तमान श्वेताम्बरीय ज़ैनागम भगवती ( व्याख्या - प्रज्ञप्ति) सूत्र एवं उत्तराध्ययनसूत्र में भी कर्मविद्या के सम्बन्ध में विविध पहलुओं से वर्णन किया गया है। वर्तमान जैन आगमों की रचना किस समय और किसके द्वारा हुई ? यह प्रश्न इतिहासज्ञों की दृष्टि से भले ही विवादास्पद हो, किन्तु इतना तो सभी विचारकों को मान्य है कि वर्तमान आगमों में वर्णित नयवाद, निक्षेपवाद, प्रमाणवाद, स्याद्वाद एवं कर्मवाद आदि सभी विशिष्ट एवं प्रमुख वांद श्रमण भ. महावीर के ही मूल विचारों के अंकुर हैं। कर्मवाद जैनदर्शन का असाधारण एवं प्रमुख वाद है। अतः नयवाद, प्रमाणवाद आदि वादों की तरह कर्मवाद का समुत्थान भी भ. महावीर से ही समझना चाहिए। जैनदर्शन का गहराई से अध्ययन करने वाले जानते हैं कि कर्मवाद का भ. महावीर के शासन (धर्मसंघ) के साथ इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि कर्मवाद को उससे पृथक् कर दिया जाय तो ऐसा प्रतीत होगा, मानो जीव से प्राण को अलग कर दिया हो । वस्तुतः कर्मवाद जैन सिद्धान्त की चर्चाओं का मूलस्रोत है। भारतीय तत्त्व चिन्तन में उसका विशिष्ट स्थान है। अनेक प्रश्नों का समाधान भी कर्मवाद पर आधारित है। कर्मवाद का सांगोपांग अध्ययन एवं उसे हृदयंगम किये बिना कोई भी व्यक्ति जैन सिद्धान्त का सम्यक् मर्मज्ञ नहीं हो सकता, न ही उसकी अनेक अटपटी गुत्थियों को आसानी से सुलझा सकता है।
वैदिक दृष्टि से कर्मवाद का समुत्थान
कतिपय विद्वानों का यह भी अभिमत है कि वेदों के रचयिता कतिपय ऋषिगण कर्मवाद के ज्ञाता थे।' उनका मन्तव्य है कि वेदों
१. देखिये - 'कर्मवाद : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन' से (जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक) पृ. २०
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