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२८२ . कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) उपयोग (९) चतुःस्थान, (१०) व्यंजन, (११) सम्यक्त्व, (१२) देशविरति, (१३) संयम, (१४) चारित्रमोहनीय की उपशमना, (१५) चारित्रमोहनीय की क्षपणा। इसकी जयधवला टीका प्रसिद्ध है।
इसके पश्चात् दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती द्वारा 'गोम्मटसार कर्मकाण्ड' की रचना हुई है। इसमें कर्मसम्बन्धी नौ प्रकरण हैं। इन्हीं आचार्य की एक कृति है-लब्धिसार (क्षपणासार गर्भित)। इसमें कर्म से मुक्त होने के उपाय का प्रतिपादन है। इसमें तीन प्रकरण हैं-(१) दर्शनलब्धि, (२) चारित्रलब्धि और (३) क्षायिक चारित्र।'
वर्तमान में श्वेताम्बर सम्प्रदाय में कर्मग्रन्थ और पंचसंग्रह के तथा दिगम्बर सम्प्रदाय में गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) के पठन-पाठन को बहुत ही महत्त्व और प्रोत्साहन मिला हुआ है।
इस प्रोत्साहन का दूसरा कारण यह है कि कर्मवाद जैनदर्शन का प्रमुख अंग है, अध्यात्मवाद के साथ उसका घनिष्ठ सम्बन्ध है। कर्मशास्त्र के गहन वन में प्रविष्ट होने के बाद पाठक की चित्तवृत्ति स्वतः एकाग्र होने लगती है। प्रारम्भ में कठिनतर प्रतीत होने वाला कर्मशास्त्र, अभ्यास हो जाने के बाद अतीव रसप्रद लगता है। उसमें चिन्तन-मननपूर्वक डुबकी लगाने पर अनेक दुर्लभ तत्त्वरत्न मिल जाते हैं, व्यक्ति अध्येता से ध्याता बन जाता है।
कर्मग्रन्थों एवं गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) के रूप में कर्मसिद्धान्त का सर्वांगीण वर्णन होने से पाठकों को कर्मतत्त्व के सांगोपांग अध्ययन-मनन 'एवं स्मरण करने में बहुत आसानी हो गई। परन्तु पूर्वोद्धृत कर्मशास्त्रों में वर्णित समग्र कर्मरहस्य का पूर्वापर सम्पर्कसूत्र विच्छिन्न हो गया, और ऊपरी तौर पर कर्म-सिद्धान्त के स्थूल अंशों का जान लेना ही पर्याप्त समझ लिया गया। फलतः कर्मसिद्धान्त के सर्वांगपूर्ण अध्ययन-अध्यापन में व्यवधान आया और उक्त पूर्वोद्धृत ग्रन्थों को दुरूह एवं क्लिष्ट समझकर उपेक्षा की जाने लगी। यदि कर्मशास्त्रों का मनोयोगपूर्वक क्रमबद्ध अध्ययन किया जाए तो इससे सुगम और चित्त को धर्मध्यान के चरणभूत अपायविचय और विपाकविचय के ध्यान में तन्मय करने में आसान अन्य कोई शास्त्र नहीं है। धर्मध्यान के बिना प्रारम्भिक दशा में मन को एकाग्र
१. कर्मसाहित्य के विशेष विवरण के लिए देखें
'जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास-भा.४ पृ. २७ से १४२ तक
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