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२७० कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
निष्कर्ष यह है कि ये भौतिकवादी नास्तिक शरीर के नाश होने के बाद कृतकर्मों का फल-भोग करने वाले तथा पुनर्जन्म ग्रहण करने वाले किसी स्थायी तत्त्व को नहीं मानते ।
भगवान् महावीर को यह मान्यता भ्रान्तिजनक, युक्तिविरुद्ध और अनिष्टकारकं प्रतीत हुई। उन्होंने सूत्रकृतांगसूत्र में ईश्वरकर्तृत्ववाद, तथा तज्जीव- तच्छरीरवाद - सम्बन्धी भ्रान्त मान्यताओं का खण्डन किया है। वे आत्मा को एक स्वतंत्र, शाश्वत, अनादि - अनन्त एवं परिणामी नित्य द्रव्य मानते हैं। पंच महाभूतों के समुदाय से आत्मा की उत्पत्ति उन्हें कथमपि अभीष्ट नहीं है। इसी भ्रान्त मान्यता का निराकरण करने हेतु भगवान् महावीर ने कर्मवाद सिद्धान्त को जगत् के समक्ष उद्घोषित किया। कर्मवाद की दृष्टि से आत्मा मूलरूप में कभी नष्ट नहीं होती । कर्म के कारण विभिन्न योनियों और गतियों में भ्रमण करती है।
इन और ऐसे ही विभिन्न कारणों से तिरोहित हुए कर्मवाद सिद्धान्त का भगवान् महावीर ने आविर्भाव किया।
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