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कर्मवाद का तिरोभाव-आविर्भाव : क्यों और कब २६९
से प्रवर्तित है और सारी प्रजा (प्राणिगण) भी कर्म से प्रवर्तित है। जैसे धुरी के आधार पर रथ का संचालन होता है, वैसे ही कर्म के कारण सभी प्राणियों का भवभ्रमण होता है। इसी प्रकार अंगुत्तरनिकाय में भी स्पष्ट प्रतिपादन है कि "मैं जो कुछ भी कल्याणकारी और पापकारी कर्म करूँगा, उसका उत्तरदायी (दायाद= भागी) मैं ही होऊँगा।"२
कर्मवाद को इस रूप में मानने पर भी बौद्धदर्शन में क्षणिकवाद का महत्वपूर्ण स्थान था। क्षणिकवाद के अनुसार प्रत्येक वस्तु उत्पन्न होकर दूसरे ही क्षण नष्ट हो जाती है। अर्थात् प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण बदलता रहता है। कोई भी सजीव-निर्जीव पदार्थ स्थायी नहीं है। बौद्ध दर्शन के अनुसार आत्मा को यदि क्षणिक मान लिया जाए तो कर्मफल की उपपत्ति कथमपि नहीं हो सकती। क्योंकि कर्म का जो करने वाला था, वह दूसरे ही क्षण समाप्त हो गया, तब उस कृतकर्म का फल कौन भोगेगा? फलतः स्वकृत-कर्मफलभोग की समस्या आत्मा को क्षणिक मान लेने से किसी भी प्रकार हल नहीं हो सकती। अतः स्वकृत कर्म का स्वयं फलभोग और परकृत कर्म के फलभोग का अभाव तभी घटित हो सकता है, जब आत्मा को एकान्त क्षणविध्वंसी न मानकर परिणामी-नित्य माना जाए, अर्थात्आत्मा को न तो एकान्त क्षणिक माना जाए और न ही एकान्त नित्य। यह मान्यता कर्मवाद के सिद्धान्त के विरुद्ध होने से भगवान् महावीर ने कर्मवाद का उपदेश दिया। भूतचैतन्यवादियों का मत कर्मवाद विरोधी था
आत्मा को स्वतंत्र तत्त्व न मानकर चार्वाक आदि दर्शन, वर्तमान भौतिकवादी नास्तिकों की तरह पृथ्वी आदि पंचभूतों से निष्पन्न मानते थे। उनका कहना था कि पंचभूतों के संयोग से इस शरीर में चेतना आ जाती है, और पाँच भूतों के नष्ट होते ही वह चेतना भी नष्ट हो जाती है। संयोग ज़ब वियोग का रूप ले लेता है तो वह शरीरगत चैतन्य (जिसे चाहे आत्मा मान लो) वहीं समाप्त हो जाता है। उसके बाद वह न कहीं जाता है, न आता है।
१. कम्मना वत्तती लोको, कम्मना वत्तती पजा। . कम्मनिबंधना सत्ता रथस्साणीव यायतो॥ -सुत्तनिपात-वासिट्ठसुत्त ६१ . २. यं कम्म करिस्सामि कल्लाणं वा पावकं वा तस्स दायादो भविस्सामि।
- अंगुत्तरनिकाय
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