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कर्मवाद के समुत्थान की ऐतिहासिक समीक्षा २७१
कर्मवाद के समुत्थान की ऐतिहासिक समीक्षा)
कर्मवाद का मूल स्रोत ___कर्मवाद के आविर्भाव के विषय में जैनपरम्परा और वैदिक परम्परा . दोनों दृष्टियों से विश्लेषण कर चुके हैं। उससे यह तो स्पष्टतः प्रतीत हो जाता है कि कर्मवाद यों तो प्रवाहरूप से अनादि है, नया नहीं। फिर भी इस कालचक्र के अवसर्पिणीकाल के प्रारम्भ से-आदितीर्थकर भगवान् ऋषभदेव के युग से प्रागैतिहासिक काल प्रारम्भ होता है। इसलिए प्रागैतिहासिक काल से कर्मवाद का आविर्भाव आदितीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव (जिनकी जीवनी भागवत पुराण में भी उल्लिखित है) से माना जाना चाहिए। उसी कर्मवाद का प्रवेश सर्वप्रथम मीमांसादर्शनकाल में, और तत्पश्चात् उपनिषद्काल में अपने-अपने ढंग से हुआ है। परन्तु कर्मवाद का मूलस्रोत और उससे सम्बन्धित प्रत्येक पहलुओं का वैज्ञानिक पद्धति से सयुक्तिक विशद प्रतिपादन जितना जैनपरम्परा में मिलता है, उतना अन्य . परम्पराओं में नहीं।' जैनदृष्टि से कर्मवाद का समुत्थानकाल
यह तो हुआ कर्मवाद के उद्भव और तत्पश्चात् उसके आविर्भाव (आविष्करण) का काल सम्बन्धी निर्णय, किन्तु इतने पर से वर्तमान तर्कप्रधान युग के शिक्षितों और अध्यात्मप्रेमी जिज्ञासुओं, इतिहासप्रेमी जैनों, तथा जैनेतर जिज्ञासु विचारकों का मनःसमाधान नहीं होता। वे परम्परावाद को या सुदूर अतीत की बात को बिना ननु-नच किये मानने को 'सहसा तैयार नहीं होते। हाँ, यदि ऐतिहासिक प्रमाण के आधार पर उनका समाधान किया जाए तो वे उसे स्वीकार करने में जरा भी नहीं हिचकिचाते।
यद्यपि कर्मतत्त्वसम्बन्धी प्रक्रिया इतनी प्राचीन है कि उस विषय में निश्चितरूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि कर्मवाद का समुत्थान १. इसके विषय में विशेष जानकारी के लिए 'कर्मवाद का आविर्भाव' लेख देखिये।
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