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२६४ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
पंचम भावी गणधर सुधर्मा के साथ लोक-परलोक के सादृश्यवैसादृश्य से सम्बन्धित शंका-समाधान हुए हैं, उस सन्दर्भ में भगवान् ने बताया है कि यह लोक हो अथवा परलोक आदि के मूल में कर्म की सत्ता है। सारे जन्म-मरणरूप संसार का मूल कर्म है । "
छठे भावी गणधर के साथ चर्चा हुई है-बन्ध और मोक्ष के सम्बन्ध में। दोनों के साथ कर्मों के लगने और छूटने का सम्बन्ध है। इसलिए कर्मवाद का स्पष्ट दिग्दर्शन भगवान् ने उसे कराया ही है।
सातवें और आठवें भावी गणधरों के साथ देव और नारकों के अस्तित्व के सम्बन्ध में चर्चा है। उसका समाधान भी कर्मवाद से सम्बन्धित है। क्योंकि शुभकर्मों के फलस्वरूप देवत्व और अशुभ कर्मों के फलस्वरूप नारकत्व की प्राप्ति होती है।
नौवें भावी गणधर की चर्चा का प्रमुख विषय है - पुण्य पाप । उसमें भी शुभ - अशुभ कर्म के अस्तित्व की चर्चा प्रधान है। इसी सन्दर्भ में कर्म - ग्रहण की प्रक्रिया, कर्मसंक्रमण, कर्मों का शुभाशुभ रूप में परिणमन इत्यादि. कर्मवाद विषयक चर्चा भी हुई है।
दसवें भावी गणधर ने परलोक के सम्बन्ध में शंका उठाई है, उसका समाधान भी इस तथ्य के साथ हुआ है कि परलोक कर्माधीन है। कर्म है तो परलोक अवश्य है।
ग्यारहवें गणधर के साथ निर्वाण विषयक चर्चा हुई है, उसमें भी भगवान् ने अभिव्यक्त किया है कि अनादि कर्म- संयोग का सर्वथा क्षय ही निर्वाण है - मोक्ष है।
निष्कर्ष यह है कि भगवान् महावीर ने इन ग्यारह विद्वान ब्राह्मणों की शंकाओं का समाधान कर्मवाद की दृष्टि से किया है। अपनी-अपनी शंकाओं का समाधान होने पर सबने सत्य को अंगीकार किया और कर्मक्षय की साधना करके सिद्ध-बुद्ध मुक्त बनने हेतु उन्होंने स्वेच्छा से अपने-अपने शिष्य- समुदाय सहित मुनिधर्म अंगीकार किया।
किसी भी शक्ति, देवी- देव या प्रजापति, ईश्वर आदि का सहारा, आश्रय न लेकर तथा किसी की मनौती एवं यज्ञादि से किसी देव आदि को प्रसन्न न करके उन्होंने स्वयमेव मोक्षसाधक ज्ञानादि की साधना से सर्वथा कर्मक्षय किया । आत्मा को स्वपुरुषार्थ से परम शुद्ध बना करके सिद्ध-बुद्धमुक्त हुए।
१. 'कम्मं च जाई - मरणस्स मूल' - उत्तराध्ययनसूत्र अ. ३२, गा. ७
२. देखिये - गणधरवाद और उसकी प्रस्तावना (पं. दलसुख मालवणिया )
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