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२५६ कर्म - विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
इस प्रसंग में इस दुष्कर्म का परिणाम परलोक (आगामी जन्म) में श्रेयस्कर न होने के भ. नेमिनाथ द्वारा निकाले गए उद्गारं क्या कर्मवाद के आविष्करण- आविर्भाव के स्पष्ट संकेत नहीं हैं ?
इसी प्रकार कर्मयोगी त्रिखण्डाधिपति वासुदेव श्री कृष्ण जब तीर्थंकर अरिष्टनेमि से द्वारिका नगरी के भावी विनाश के मूल (कारण) के विषय में पूछते हैं, ' तब भी उनका उत्तर कर्मवादगर्भित होता है। सुरापान तथा अग्निकुमार द्वैपायन ऋषि पर मर्मान्तक प्रहार के कारण हुए घोर पाप कर्मबन्ध का ही परिणाम द्वारिकानगरी के विनाश के रूप में फलित होता है। यह भी उनके द्वारा कर्मवाद की अभिव्यक्ति है ।
श्री कृष्णजी के सहोदर लघुभ्राता गजसुकुमाल मुनि जब महाकाल: श्मशान में कायोत्सर्ग में स्थित थे, तब उनके सिर पर सोमल ब्राह्मण ने खैर के धधकते अंगारे रखकर उनको निर्मम प्राणान्त करने का उपक्रम किया था । किन्तु उसे समभाव से सहन करते हुए आत्म-स्वभाव में अडोल रहने के कारण समस्त कर्मों से मुक्त, सिद्ध-बुद्ध हो गए। दूसरे दिन प्रातः श्री कृष्ण जी द्वारा भगवान् अरिष्टनेमि से गजसुकुमाल मुनि का वृत्तान्त पूछने पर उन्होंने कहा-कृष्ण ! गजसुकुमाल अणगार ने अपना कार्य (आत्मार्थ) सिद्ध कर लिया ।
श्री कृष्णजी द्वारा विशेष विवरण पूछे जाने पर भगवान अरिष्टनेमि ने कहा- "जैसे तुमने उस वृद्ध पुरुष को सहायता दी, ठीक उसी प्रकार, उस पुरुष ने गजसुकुमाल अनगार को उनके अपने अनेक शत-सहस्र अर्थात् लाखों (९९ लाख) भवों (जन्मों) में संचित किये हुए कर्मों की उदीरणा करकें सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करने में सहायता दी है। ...इसलिए हे कृष्ण ! तुम उस मनुष्य पर प्रद्वेष (रोष) मत करो। अर्थात् उस व्यक्ति ने गजसुकुमाल मुनि को समस्त कर्मों को निर्मूल करने में तथा सर्वदुःखों का अन्त करने में बड़ी सहायता पहुँचाई है। अब तुम उस पर रोष करके नये दुष्कर्म मत बाँधो ।'
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"१. "इमी से णं भंते! वारवत्तीए णयरीए दुवालस जोयण आयामाए जाव पच्चक्ख देवलोग भूयाए कि मूलाए विणासे भविस्सइ ?"
२. "इमी से वारवत्तीए णयरीए
सुरग्गिदीवायणमूलाए विणासे भविस्सइ ।"
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- अन्तकृद्दशांग सूत्र वर्ग ५ अ. १
३.
"साहिए णं कहा गयसुकुमालेणं अणगारेणं अप्पणी अ........."
४. (क) जहा णं कण्हा! तुमं तस्स पुरिसस्स साहिज्जे दिन्ने, एवमेव कण्हा! तेणं पुरिसेणं गयसुकुमालस्स अणगारस्स अणेगभव - सय सहस्स - संचियं कम्म उदी रेमाणेण बहुकम्म णिज्जरत्थं साहिज्जे दिने ।
- अन्तकृत् दशांग वर्ग ३ अ. ८ (ख) "माणं तुमं तस्स पुरिसस्स पदोस भावज्जाहि एवं खलु कण्हा । तेणं पुरिसेण गय सुकुमालस्स अणगारस्स साहिज्जे दिन्ने ।"
- वही, वर्ग ३ अ. ८
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