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कर्मवाद का तिरोभाव-आविर्भाव : क्यों और कब
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अमृतमयी साधना क्रोधाविष्ट होकर राख में मिला दी। फिर उस अशुभकर्मवश कई जन्मों में डूबते-उतराते वे त्रिपृष्ठ वासुदेव के रूप में शक्तिशाली पराक्रमी राजा हुए। इस जन्म में कर्मक्षय करने के उत्तम अवसर को खोकर राजसत्ता के अहंकार के नशे में अपने शय्यापालक की जरा-सी भूल के कारण उसके कानों में खौलता हुआ गर्मागर्म शीशा उंडेलवा कर उसे प्राणान्त दण्ड दे दिया। इस क्रूर कर्म के कारण सम्यक्त्व से भ्रष्ट होकर वे अनेक जन्मों तक नरक और तिर्यञ्चगति में जन्म लेकर विविधरूप में यातनाएँ भोगते रहे।
अन्त में २५ वें 'नन्दन' राजकुमार के भव में उन्होंने गृहस्थजीवन तथा साधुजीवन दोनों में तप, सेवा, दया, विरक्ति, गुरुभक्ति, क्षमा आदि के फलस्वरूप बहुत से अशुभ कर्मों का क्षय करके उच्चतर आत्मविशुद्धि के कारण संचित पुण्यराशि के फलस्वरूप तीर्थकर गोत्र का उपार्जन किया। उसके पश्चात् २६वें भव में वे दशम देवलोक में पहुँचे और वहाँ से च्यवकर इसी भरतक्षेत्र में ज्ञातपुत्र तीर्थकर वर्द्धमान महावीर बने।' __महावीर ने ३० वर्ष के यौवनवय में निकाचित रूप से बँधे हुए अपने अवशिष्ट कर्मों को स्वकीय पुरुषार्थ से क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा बनने हेतु मुनिदीक्षा अंगीकार की । मुनिजीवन में भी उन्हें पूर्वजन्मों में बद्ध निकाचित कर्मों के उदय के कारण अनेक बार प्राणान्त कष्ट भोगने पड़े। उनमें कहीं गोपालक, कहीं संगमदेव, कहीं तापस, कहीं यक्ष, कहीं अपरिचित ग्रामीण, कहीं अनार्य देशीय लोग, कहीं सुदंष्ट्र नागकुमार आदि कठोर यातनाएँ देने में निमित्त बने। श्रमणशिरोमणि दीर्घ तपस्वी भगवान् महावीर ने कर्मक्षय के सुन्दर अवसर को न खोने का निश्चय किया और समभाव, क्षमा, धैर्य, कष्टसहिष्णुता आदि भावों के साथ उन कर्मों को भोग कर क्षय कर डाला। __पूर्वकृत कर्मोदयवश विकट संकट-घटाओं से घिरे होने पर भी वे उन कर्मों से परास्त नहीं हुए। अजेय योद्धा की तरह साहसपूर्वक पूर्वकर्मों का कटुफल उन्होंने समभावपूर्वक भोगा, घोर यातनाएँ सहीं, और अन्त में, उन कठोर आत्मगुणघाती कर्मों को ध्वस्त करके पराजित किया। साथ ही, साधनाकाल में भी तीव्र सावधानी रखी, ताकि कोई नया कठोर कर्म आकर उनके जीवन के साथ न बंध जाए। इस प्रकार उन्होंने अपने जीवन से
१. विशेष विवरण के लिए देखिये-आवश्यकचूर्णि, कल्पसूत्र आदि तथा भ. महावीर :
एक अनुशीलन (ले. उपाचार्य देवेन्द्र मुनि)
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