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कर्म - विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
मुख्यरूप से सहमत रहे, किन्तु कर्मतत्त्व के स्वरूप के विषय में एकमत नहीं हुए।
प्रवर्तक धर्म पहले प्रचलित था या निवर्तक धर्म ?
प्रवर्तक धर्म पहले प्रचलित था अथवा निवर्तक धर्म ? इस सम्बन्ध में हम पंचम कर्मग्रन्थ के पूर्वकथन के पाद टिप्पण में उल्लिखित मन्तव्य को अक्षरशः उद्धृत कर रहे हैं
"मेरा ऐसा अभिप्राय है कि इस देश में किसी भी बाहरी स्थान से प्रवर्तक धर्म या याज्ञिक धर्म आया और वह ज्यों-ज्यों फैलता गया, त्यों-त्यों इस देश में उस प्रवर्तक धर्म के आने से पहले से ही विद्यमान निवर्तक धर्म अधिकाधिक बल पकड़ता गया। याज्ञिक प्रवर्तक धर्म की दूसरी शाखा ईरान में जरस्थोस्त्रियन - धर्मरूप से विकसित हुई। और भारत में आने वाली याज्ञिक प्रवर्तक धर्म की शाखा का निवर्तक धर्मवादियों के साथ प्रतिद्वन्द्वीभाव शुरू हुआ। यहाँ के पुराने - निवर्तकधर्मवादी आत्मा, कर्म, मोक्ष, ध्यान, योग, तपस्या आदि विविध मार्ग, यह सब मानते थे । वे न तो जन्म सिद्ध चातुर्वर्ण्य मानते थे और न चातुराश्रम्य की नियत व्यवस्था। उनके मतानुसार किसी भी धर्मकार्य में पति के लिए पत्नी का सहचार अनिवार्य न था, प्रत्युत त्याग में एक दूसरे का सम्बन्ध विच्छेद हो जाता था। जबकि प्रवर्तकधर्म में इससे सब कुछ उल्टा था। महाभारत आदि प्राचीन ग्रन्थों में गार्हस्थ्य और त्यागाश्रम की प्रधानता वाले जो संवाद पाये जाते हैं, वे उक्त दोनों धर्मों के विरोधसूचक हैं। प्रत्येक निवृत्तिधर्मवाले दर्शन के सूत्रग्रन्थों में मोक्ष को ही पुरुषार्थ लिखा है, जबकि याज्ञिक मार्ग के विधान स्वर्गलक्षी बतलाए हैं। आगे जाकर अनेक अंशों में उन दोनों धर्मों का समन्वय भी हो गया है। " "
इस पर से यह मत स्थिर नहीं जा सकता कि किसी समय केवल प्रवर्तक धर्म ही प्रचलित रहा और निवर्तक धर्म का प्रादुर्भाव बाद में हुआ । तथापि ऐसा प्रारम्भिक काल अवश्य व्यतीत हुआ है, जब समाज मेंविशेषतः गृहस्थवर्ग में प्रवर्तकधर्म की प्रतिष्ठा ही प्रमुख थी। उस समय में जो भी ऋषि-मुनि आदि हुए, वे भी प्रवर्तक धर्मवाद से प्रभावित थे, वे सपत्नीक रहकर वनों में अपने-अपने आश्रम चलाते थे।
वर्णों में ब्राह्मण वर्ण को गुरुत्व प्राप्त था और आश्रमों में गृहस्थाश्रम को ज्येष्ठता प्राप्त थी । ब्राह्मणवर्ण उस युग के सपत्नीक ऋषिवर्ग के सान्निध्य में यज्ञ, होम आदि अनुष्ठान चलाते थे, षोड़श संस्कार भी कराते १. कर्मग्रन्थ पंचम भाग (पं. कैलाशचन्दजी शास्त्री द्वारा संपादित ) के पूर्व कथन (पं. सुखलालजी) के पादटिप्पण से उद्धृत
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