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कर्मवाद का आविर्भाव
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कर्मवाद का आविर्भाव
आत्मा और परमात्मा के बीच में अन्तर का कारण : कर्म
इस विराट विश्व में भारतवर्ष के मुख को उज्ज्वल-समुज्ज्वल रखने तथा मानव-मस्तिष्क को ऊर्जस्वी, वर्चस्वी एवं तेजस्वी बनाने में और प्राणी मात्र के जीवन की विविध सुख- दुःखमूलक गुरु गंभीर समस्याओं के समुचित समाधान हेतु अतीत काल से लेकर वर्तमान युग तक आध्यात्मिक महामनीषी महापुरुषों ने प्रबल प्रयास किया है। उन्होंने आत्मा से परमात्मा बनने के मार्ग में साधक और बाधक तत्त्वों का भली-भांति परिशीलन किया। उन्होंने साधकों को यह प्रेरणा प्रदान की कि तुम्हें बाधक तत्त्वों से सदा सर्वदा दूर रहना है और उन बाधक तत्त्वों की चट्टानों को चीरते हुए तुम्हें साधना के पथ पर वीर सेनानी की तरह आगे बढ़ना है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप के कठोर कंटकाकीर्ण महामार्ग को अपनाना है, यह हमारा अपना अनुभूत मार्ग है। एक दिन हमारी आत्मा भी मोह के दल-दल में फंसी हुई थी। राग का दावानल धू-धूकर हमारे अन्तर्हृदय में जल रहा था। उन दुर्गुणों को हमने नष्टकर अपने शुद्ध स्वरूप को प्रकट किया है। आत्मा ही परमात्मा है। आत्मा और परमात्मा के बीच में व्यवधान पैदा करने वाला कर्मतत्त्व है। कर्मयुक्त जीव
आत्मा की अभिधा से सम्बोधित किया जाता है और कर्ममुक्त जीव .. परमात्मा की संज्ञा से पहचाना जाता है। एक कवि के हृदयतन्त्री के सुकुमार तार इस प्रकार झनझना उठे
आत्मा-परमात्मा में कर्म का ही भेद है। काट दे गर कर्म तो फिर भेद है न खेद है।।
शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा ही परमात्मा है अप्पा सो परमप्पा। आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है। पर व्यवहारनय की दृष्टि से संसारी जीवों की आत्मा पर कर्मों का सघन आवरण है, जिसके कारण आत्मा का विशुद्ध रूप आच्छादित हो गया है। जितनी भी सांसारिक
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