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कर्मवाद का आविर्भाव
२३५.
बुद्ध-मुक्त परमात्मा होने के लिए आठों ही कर्मों का सर्वथा क्षय करना अनिवार्य है।
अनादि कर्म प्रवाह को तोड़े बिना सदेह - विदेह परमात्मा नहीं बनते
इसलिए भले ही प्रागैतिहासिक काल का कोई लिखित या मौखिक परम्परागत श्रुतिसम्मत कर्णोपकर्ण धारणा रूप में प्रचलित प्रमाण न मिलता हो, फिर भी इतना तो निःसन्देह कहा जा सकता है कि जगत् के जीवों के साथ जैसे आत्मा अनादिकाल से है, वैसे ही कर्म भी प्रवाहरूप से अनादिकाल से है, किन्तु जैसे व्यक्तिशः कर्म की आदि है, वैसे उसका अन्त भी है। आत्मा निश्चयदृष्टि से अनादि अनन्त है । यदि ऐसा न होता तो तीर्थंकर, अर्हत्- जीवन्मुक्त वीतराग परमात्मा चार घातिक कर्मों का क्षय क्यों और कैसे करते? और वीतराग बनने के पश्चात् भी शेष रहे चार अघाति कर्मों का क्षय क्यों और कैसे करते और सिद्ध-बुद्ध-मुक्त निरंजन- निराकार परमात्मा कैसे होते ? इसलिए यह निर्विवाद है कि 'कर्म' का प्रवाह अनादिकाल से चला आ रहा है।
जैसा कि 'प्रमाणमीमांसा' में कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य ने कहा है - ' "अनादिकाल से प्रवाहरूप से, शब्दरूप से नहीं तो भावरूप से चली आ रही कर्मवाद आदि विद्याओं का आदितीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर तक समय-समय संक्षिप्त अथवा विस्तृतरूप में नयी-नयी शैली में प्रतिपादन होता रहा है। इस दृष्टि से कर्म सिद्धान्त के प्रतिपादन- कर्ता वे-वे तीर्थंकर, गणधर या आचार्य आदि कहलाते हैं।"
यों तो जैनधर्म का अभाव किसी देश - विशेष या काल- विशेष में एक 'समान भले ही दिखाई न देता हो, किन्तु जैनधर्म और कर्मवाद का सूर्य और उसकी किरण के समान घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। इसलिए यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि कर्मवाद भी प्रवाहरूप से अनादि है, वह अभूतपूर्व नहीं है। नये-नये ढंग से उसका विश्लेषण - विवेचन विभिन्न तीर्थंकरों के समय अवश्य हुआ है। अतः जैन इतिहास की दृष्टि से कालचक्र के अन्तर्गत इस अवसर्पिणी काल में आदि - तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के युग से कर्म सिद्धान्त का आविर्भाव मानना अनुपयुक्त नहीं होगा । '
कर्मवाद के आविर्भाव का एक और प्रबल कारण
आदि - तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव से कर्मवाद का आविर्भाव या आविष्करण (अभिव्यक्तिकरण) मानने में एक प्रबल कारण यह भी है कि
१. अनादय एवैता विद्याः संक्षेप - विस्तार - विवक्षया नवनवी भवन्ति, तत्तत्कर्तृकाचोच्यन्ते । - प्रमाणमीमांसा सू. १
• कर्मग्रन्थ प्रथम भाग की पं. सुखलालजी की प्रस्तावना पृ. ७
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