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कर्मवाद का आविर्भाव
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उनके द्वारा पुत्रों को दिये गये श्रीमद् भागवत् पुराण में अंकित उपदेश का भावार्थ यह है ' "पुत्रो ! देहधारियों की यह देह उन भोगों को भोगने के लिये नहीं है, जिन्हें प्राप्त करने में, भोगने में और भोगने के पश्चात् भी अत्यन्त कष्ट सहना पड़ता है। अतएव इन काम भोगों पर गर्व न करो। इन भोगों को तो विष्टा खाने वाले शूकर आदि पशु भी भोगते हैं । तुम राजपुत्र हो, तुम्हारा यह शरीर काम भोगों के सेवन के लिए नहीं, किन्तु
मुक्ति के हेतु दिव्यतप करने के लिए है, जिससे अन्तःकरण (अन्तरात्मा) शुद्ध हो क्योंकि शुद्ध अन्तःकरण से अनन्त ब्रह्म (आत्म) सुख की प्राप्ति होती है।"
इसी प्रकार सूत्रकृतांगसूत्र में उल्लिखित भगवान् ऋषभदेव के उपदेश का तात्पर्य यह है कि "हे पुत्रो ! तुम सम्बोध प्राप्त करो, समझो। यह भौतिक राज्य, सुख-सम्पदा, भोगसामग्री आदि प्राप्त भी कर लो तो भी तुम्हें शान्ति, समाधि और स्वतंत्रता नहीं मिलेगी। सच्ची शान्ति, स्वतंत्रता और समाधि, मोक्षसुखसम्पन्न शाश्वत आध्यात्मिक राज्य पाने से ही हो सकेगी। जागृति का यह अमूल्य अवसर है। लोभवृत्ति के कारण भरत की वर्तमान दशा देखकर तुम्हें बोध पाना (समझना चाहिए कि राज्य पा लेने पर भी, सच्ची शान्ति, कर्ममुक्ति और स्वाधीनता नहीं प्राप्त होती । तुम इसे जान-बूझकर क्यों नश्वर साम्राज्य के चक्कर में पड़ना चाहते हो ? सम्बोधि का यह सुन्दर अवसर खोओ मत। यहाँ यह मौका चूक गए तो परलोक में सम्बोधि का पाना बहुत दुर्लभ है। जो रात्रियाँ बीत जाती हैं, वे लौटकर वापस नहीं आतीं और यह मनुष्य जीवन भी जो कर्मों का सर्वथा क्षय करके मोक्ष पाने के लिए है, पुनः सुलभ नहीं है"।
कर्मवाद के पुरस्कर्ता : भगवान् ऋषभदेव
कितनी सुन्दर प्रेरणाएँ हैं, भगवान् ऋषभदेव की अपने पुत्रों के लिए । उन्होंने अपने उपदेशों में कहीं भी किसी शक्तिविशेष या देवी - देव अथवा पुरुषविशेष से स्वर्ग, मोक्ष या अन्य किसी वस्तु को पाने की प्रार्थना या
१. भ. ऋषभदेव का उपदेश भागवत् में
(क) नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान् कामानर्हते विड्भुजां ये।
तपो दिव्यं पुत्रका ! येन सत्त्वं, शुद्धयेदस्माद् ब्रह्मसौख्य त्वनन्तम् ॥
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• श्रीमद् भागवत पंचम स्कन्ध
(ख) जैनागम सूत्रकृतांग सूत्र में
संबुज्झह, किं न बुज्झह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा । नो हूवणमंति राइओ, नो सुलह पुणरावि जीवियं ॥
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