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२४२ · कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
याचना करने की प्रेरणा नहीं दी। उन्होंने स्वयं के तप-संयम-त्याग और वैराग्य के पुरुषार्थ से अपनी आत्मा को विशुद्ध एवं कर्ममल रहित बनाने की ही देशना दी है। ___ इससे स्पष्ट ध्वनित होता है कि आदितीर्थकर भगवान् ऋषभदेव कर्मवाद के रहस्य और धर्माचरण में पुरुषार्थ के पुरस्कर्ता थे। वे देववाद, यज्ञवाद अथवा पुरोहितवाद के प्रेरक या पुरस्कर्ता कतई नहीं थे।
इसलिए यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि प्रागैतिहासिक काल मे कर्मवाद का आविर्भाव जैन दृष्टि से आदितीर्थकर भगवान् ऋषभदेव के युग से हुआ है। वैदिक परम्परा में कर्मवाद का प्रवेश : कब से, कहाँ से?
वेदों और उनकी ऋचाओं का अनुशीलन-परिशीलन करने से उनमें कर्मवाद का कहीं अता-पता नहीं लगता। यह तो नहीं कहा जा सकता कि वैदिककालीन ऋषियों को मानव नर-नारियों में तथा विविध प्रकार के पशुओं, पक्षियों, सरीसृपों, कीट-पतंगों तथा वनस्पतियों, पेड़-पौधों तथ विविध प्रकार की पृथ्वियों, जलों, हवाओं आदि में विद्यमान विचित्रताओं विरूपताओं की अनुभूति नहीं हुई हो, लेकिन ऐसा मालूम होता है कि उन ऋषियों ने उन विचित्रताओं एवं विविधताओं का कारण अन्तरात्मा रे खोजने और पता लगाने की अपेक्षा उन्हें बाह्य पदार्थों में ही खोज कर मनःसमाधान कर लिया था।
सृष्टि के प्राणियों की इस प्रकार की विविधतायुक्त रचना या उत्पत्ति का कारण किसी ने वरुण, मरुत्, अग्नि, यम, इन्द्र, कुबेर आदि एक य अनेक सजीव-निर्जीव पदार्थों को माना, किसी ने ब्रह्मा या प्रजापति को इस वैविध्यपूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति का कारण माना। विभिन्न वैदिक ऋषियों विविधताओं से पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति के आधार की कल्पना इन और ऐरं ही बाह्य तत्त्वों में की। परन्तु किसी भी ऋषि ने विविधतापूर्ण सृष्टि क कारण उन-उन प्राणियों की अन्तरात्मा में होने की कल्पना नहीं की इतना ही नहीं, इस सृष्टि में प्राणियों की विविधता का आधार यथार्थ । क्या है ? इसका स्पष्ट समाधान करने का प्रयास भी नहीं किया। सृष्टि वे १. (क) 'आदि पुराण' .
(ख) 'त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र' से संक्षिप्त (ग) जवाहर किरणावली भा. १४ (रामवनगमन भा. १) से संक्षिप्त (घ) श्रीमद् भागवत (ङ) सूत्रकृतांगसूत्र श्रु. १ अ. २ से
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