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कर्मवाद का आविर्भाव २४७
इस आधार पर मीमांसा दर्शन में 'अपूर्व' नाम के पदार्थ की कल्पना की गई। यह कल्पना वेद में अथवा ब्राह्मणों (ग्रन्थों) में नहीं है। यह दार्शनिक काल में दिखाई देती है। इससे भी सिद्ध होता है कि अपूर्व के समान अदृष्ट पदार्थ की कल्पना मीमांसकों की मौलिक देन नहीं, परन्तु वेदेतर प्रभाव का परिणाम है । "
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वैदिक द्वारा सृष्टि के अनादित्व की मान्यता पर जैन परम्परा का प्रभाव
"वैदिक परम्परा में मान्य वेद और उपनिषदों तक की सृष्टि प्रक्रिया के अनुसार जड़ और चेतन सृष्टि अनादि न होकर सादि है । यह भी माना गया कि वह सृष्टि किसी एक या किन्हीं अनेक जड़ अथवा चेतन तत्त्वों से उत्पन्न हुई है। इसके विपरीत कर्म सिद्धान्त के अनुसार यह मानना पड़ता है कि जड़ अथवा जीवसृष्टि अनादिकाल से चली आ रही है। यह मान्यता जैन परम्परा के मूल में ही विद्यमान है। उसके अनुसार किसी ऐसे समय की कल्पना नहीं की जा सकती, जब जड़ और चेतन का अस्तित्व - कर्मानुसारी अस्तित्व न रहा हो । यही नहीं, उपनिषदों के अनन्तरकालीन समस्त वैदिक मतों में भी संसारी जीव का अस्तित्व इसी प्रकार अनादि स्वीकार किया गया है। यह कर्मवाद की मान्यता की ही देन है। " २
अनादि संसार सिद्धान्त का मूल : वेदेतर परम्परा में
“कर्मतत्त्व की कुंजी इस सूत्र से भी प्राप्त होती है कि जन्म-मरण का कारण (मूल) कर्म है। इसी सिद्धान्त के आधार पर संसार के अनादि होने की कल्पना की गई है। अनादि संसार के जिस सिद्धान्त को बाद में सभी वैदिक दर्शनों ने स्वीकार किया, वह इन दर्शनों की उत्पत्ति के पूर्व ही जैन
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एवं बौद्ध परम्परा में विद्यमान था । किन्तु वेद अथवा उपनिषदों में इसे सर्वसम्मत सिद्धान्त के रूप में स्वीकृत नहीं किया गया। इससे पता चलता है कि इस सिद्धान्त का मूल वेदबाह्य परम्परा में है। यह वेदेतर परम्परा भारत में आर्यों के आगमन से पहले के निवासियों की हो सकती है और उनकी इन मान्यताओं का ही सम्पूर्ण विकास वर्तमान जैन परम्परा में सम्भव है।”४
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१. (क) आत्ममीमांसा (पं. दलसुख मालवणिया) से उद्धृत पृ. ८२, ८४ (ख) गणधरवाद प्रस्तावना (पं. दलसुख मालवणिया) से उद्धृत पृ. १२०, १२२
२. आत्ममीमांसा से उद्धृत
'कम्मं च जाई - मरणस्स मूल'
४. गणधरवाद की प्रस्तावना पृ. १२१ से उद्धृत
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उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३२
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