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२४८ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
कर्मवाद का मूल उद्गम : जैन-परम्परा
आगे चलकर पं. दलसुख मालवणिया इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि "जैन-परम्परा प्राचीन (प्रागैतिहासिक) काल से ही कर्मवादी है, उसमें देववाद को कभी भी स्थान प्राप्त नहीं हुआ।" .
वैदिक विचारक यज्ञ की क्रिया के चारों ओर ही समस्त विचारणा का आयोजन करते हैं। जैसे उनकी मौलिक विचारणा का स्तम्भ यज्ञक्रिया है, वैसे ही जैन विद्वानों की समस्त विचारणा कर्म पर आधारित है। अतः उपकी मौलिक विचारणा की नींव कर्मवाद है।' वैदिक परम्परा में यज्ञादि के साथ कर्म का समावेश - वैदिक परम्परा में यज्ञकर्म तथा देव दोनों की मान्यता थी। जब देव की अपेक्षा कर्म का महत्व अधिक माना जाने लगा, तब यज्ञ का समर्थन करने वालों ने यज्ञ और कर्मवाद का समन्वय कर यज्ञ को ही देव बना दिया
और वे यह मानने लगे कि यज्ञ ही कर्म है तथा इसी से सब फल मिलते हैं। दार्शनिक व्यवस्था काल में इन लोगों की परम्परा का नाम 'मीमांसा दर्शन' पड़ा। प्रजापति देवाधिदेव के साथ कर्मवाद का समन्वय
__ आगे चलकर वैदिक परम्परा में यज्ञ के विकास के साथ-साथ देवों की विचारणा का भी विकास हुआ। ब्राह्मण काल में प्राचीन अनेक देवों के स्थान पर एक प्रजापति को देवाधिदेव माना जाने लगा। जिन लोगों की श्रद्धा इस देवाधिदेव पर अटल रही उनकी परम्परा. में भी कर्मवाद को स्थान प्राप्त हुआ और उन्होंने भी प्रजापति तथा कर्मवाद का समन्वय अपने ढंग से किया।
वे मानते हैं कि जीव को अपने कर्मानुसार फल तो मिलता है, किन्तु इस फल को देने वाला देवाधिदेव ईश्वर है। ईश्वर जीवों के कर्मानुसार उन्हें फल देता है, अपनी इच्छानुसार नहीं। इस समन्वय को स्वीकार करने वाले वैदिक दर्शनों में न्याय, वैशेषिक, वेदान्त और उत्तरकालीन सेश्वर सांख्यदर्शन (योगदर्शन) का समावेश है।" वैदिकों में कर्मवाद का प्रवेश क्यों, कब और किस रूप में ?
वैदिक विद्वानों ने यज्ञ, देव या देवाधिदेव के साथ कर्मवाद का समन्वय भी तभी किया, जब कर्मसिद्धान्त का प्राबल्य होने लगा। जिस प्रकार १. गणधरवाद की प्रस्तावना पृ. १२१ से उद्धृत २. आत्ममीमांसा से उद्धत पृ.८४ ३. 'गणधरवाद की प्रस्तावना' पृ. १२२ से उद्धृत
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