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कर्मवाद का आविर्भाव
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उपनिषद्काल में अध्यात्मवाद का प्रबलता से प्रतिपादन होने लगा, तब पशुवधमूलक यज्ञों एवं अन्य कर्मकाण्डों पर से लोगों की श्रद्धा क्षीण होने लगी, उसी प्रकार कर्मवाद के व्यवस्थित ढंग से प्रतिपादन होने पर अनेक देवों से सम्बन्धित श्रद्धा का भी ह्रास होने लगा। याज्ञवल्क्य जैसे उपनिषद्कालीन ऋषि भी कर्मवाद का रहस्य समझाते हुए कहते हैं-पुण्यकर्म (शुभ कार्य) से मनुष्य पुण्यवान् बनता है, और पापकर्म से पापी।' जो जैसा कार्य या आचरण करता है, वह वैसा ही बन जाता है। अच्छा कार्य करने वाला अच्छा बनता है और बुरा कार्य करने वाला बुरा।२ ___ "इसीलिए कहा गया है कि मनुष्य कामनाओं का बना हुआ (काममय) है। जैसी उसकी कामना होती है, तदनुसार वह निश्चय करता है, और जैसा निश्चय करता है, वैसा ही कर्म वह करता है, तथा जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल पाता है।"३ वैदिकों द्वारा कर्मवाद की स्पष्ट धारणा नहीं .. इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक विद्वानों ने कर्मवाद का समावेश तो अपने-अपने ग्रन्थों में किया, किन्तु संसार के समस्त प्राणियों की विविधता तथा मनुष्यों की अनेकरूपता के कारणभूत कर्म का रहस्योद्घाटन नहीं कर सके। कर्मकाण्डी मीमांसकों ने देवों और यज्ञों की परिधि में ही कर्मवाद को समाविष्ट किया, तथा देवाधिदेववादी, प्रजापतिवादी या ईश्वरवादी भी अपनी सारी बौद्धिक शक्ति ईश्वर-कर्तृत्व एवं ईश्वर की सिद्धि में लगाते रहे। वे संसार की विचित्रता के कारणभूत विविध कर्मों तथा उनके बन्ध के कारणों और विविध फलों के विषय में कोई स्पष्ट धारणा नहीं बना सके। कर्मवाद का मूल और विकास जैन परम्परा में ही
अतः कर्मवाद मूलरूप में जिस जैनपरम्परा का था, उसी ने इस वाद पर गहराई से छानबीन करके उस सिद्धान्त को वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया। संसार के विभिन्न वर्ग के प्राणियों के जितने भी उच्चावंच प्रकार सम्भव हैं, तथा एक ही जीव की आध्यात्मिक दृष्टि से सांसारिक निकृष्टतम अवस्था से लेकर उसकी उच्चतम अवस्था तक
१. 'पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति, पापः पापेन।" - बृहदारण्यक ३/२/१३ २. “यथाकारी यथाचारी तथा भवति ।
साधुकारी साधुर्भवति, पापकारी पापी भवति।" "बृहदारण्यक ४/४५ ३. “अथा खल्वाहुः काममय एवाऽयं पुरुष इति स यथाकामो भवति, तत्कर्तुर्भवति,
यत्कर्तुर्भवति तत्कर्मकुरुते, यत्कर्म कुरुते, तदभिसम्पद्यते।" -वही, ४/४५
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