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२४४ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
आदि का वर्णन था। इस प्रकार वेदकाल से लेकर ब्राह्मण काल तक सारा तत्त्वज्ञान देवों की पूजा और उन्हें प्रसन्न करने के साधनभूत यज्ञ-यागादि की परिधि में सीमित रहा ।
ब्राह्मण काल के पश्चात् विविध उपनिषदों की रचना हुई। इनका तत्त्वज्ञान वेदों और ब्राह्मण ग्रन्थों से निराला ही था । वेदों और ब्राह्मणों में जहाँ कामनामूलक यज्ञ यागादि कर्मों का ही विधान था, वहाँ उपनिषदों ने निष्काम कर्म, आत्मा एवं इन्द्रिय, मन, बुद्धि, प्राण आदि के विकास की नूतन विचारधारा प्रवाहित की । वेदों और ब्राह्मण ग्रन्थों का भांग होने के कारण ये वेदान्त के रूप में प्रसिद्ध हुए । वेदान्त शब्द स्वतः यह सूचित करता है कि ये वेदवाद (देववाद, यज्ञवाद और पुरोहितवाद) का अन्तः ( परिसमाप्ति) करने वाले हैं, अथवा इनके बाद वेद- परम्परा का लगभग विसर्जन निकट आ गया है। अतः उपनिषद् वैदिक साहित्य के अंगभूत होने पर भी वेदवाद के विरोधी से थे। इनमें सृष्टि तथा अदृष्ट (कर्म का पर्याय: वाचक) के विषय में नई विचारधारा का उल्लेख था जो वेदों और ब्राह्मण ग्रन्थों में नहीं था । '
भगवद्गीता आदि परवर्ती वैदिक साहित्य में उपनिषदों के पूर्वकालीन वेदवाद का खण्डन मिलता है। उनका भावार्थ इस प्रकार है
“सकामी (अज्ञानी) तथा अनिश्चयी पुरुषों की बुद्धियाँ अनेक भेदों वाली और अनन्त होती हैं । हे अर्जुन! जो सकामी (अज्ञानी) पुरुष केवलफलप्राप्ति में प्रीति रखते हैं, स्वर्ग को ही परम लक्ष्य मानते हैं. वे वेदवादरत कामनापरायण लोग ‘इससे बढ़कर और कुछ नहीं हैं,' ऐसा कहते हैं। वे विवेकमूढ़ जन जन्म-मरणरूप कर्मफल को देने वाली तथा भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए बहुत-सी कामनामूलक यज्ञादि क्रियाओं की प्रचुरता से युक्त लच्छेदार भाषा से सुशोभित वाणी बोलते हैं। उस वाणी द्वारा जिनके चित्त अपहृत हो जाते है, और जो भोग और ऐश्वर्य में आसक्त हो जाते हैं, उनके अन्तःकरण में व्यवसायात्मिका (निश्चयात्मिका) बुद्धि नहीं होती। इसलिए समस्त वेद तीनों गुणों (सत्व, रज, तम) के कार्यरूप संसार विषय के ही प्रतिपादक हैं। अतः हे अर्जुन ! तू त्रिगुणों से (संसार) से
१. इसके विस्तृत वर्णन के लिए 'आत्ममीमांसा' (डॉ. दलसुख मालवणिया ) में कर्म विचारणा प्रकरण देखिये ।
२. आत्ममीमांसा पृ. ८०
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