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विभिन्न कर्मवादियों की समीक्षा : चार पुरुषार्थों के सन्दर्भ में
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क्रियाओं को नियोजित किया। इस विषय में तो सभी निवर्तक धर्मवादियों का मतैक्य रहा कि किसी प्रकार से कर्मों को समूल नष्ट करके, ऐसी अवस्था को प्राप्त कर लेना जिससे पुनः जन्म-मरण रूप संसार के चक्र में परिभ्रमण करना न पड़े। आत्मा अपने साथ लगे हुए कर्मों से सर्वथा मुक्त तथा आत्यन्तिकरूप से निवृत्त होकर अपने परम शुद्ध स्वरूप को उपलब्ध कर ले, परमात्मपद को-सच्चिदानन्द पद को प्राप्त कर ले। निवर्तक धर्मवादियों के मुख्य तीन पक्ष
किन्तु इन निवर्तक धर्मवादियों में भी अनेक पक्ष प्रचलित थे। यह पक्ष-भिन्नता कुछ तो वादों की स्वभावमूलक उग्रता-मृदुता के कारण थी,
और कतिपय अंशों में तत्त्वचिन्तन की विभिन्न प्रक्रियाओं के कारण थी। जो भी हो, उस युग के निवर्तकवादी चिन्तकवर्ग को मुख्यतया तीन पक्षों में वर्गीकृत किया जा सकता है-(१) परमाणुवादी, (२) प्रधानवादी और (३) प्रधान-छायापन्न परमाणुवादी। ___ इनमें प्रथम पक्ष परमाणुवादी था, वह मोक्ष-समर्थक होने पर भी प्रवर्तक धर्म का उतना विरोधी नहीं था, जितना दूसरा और तीसरा पक्ष था। यह (परमाणुवादी) पक्ष न्याय और वैशेषिक दर्शन के रूप में प्रख्यात हुआ। . दूसरा पक्ष प्रधानवादी था। यह पक्ष आत्यन्तिक कर्म-निवृत्ति तथा दुःखों से सर्वथा मुक्ति का समर्थक था, और प्रवर्तक धर्म अर्थात्-श्रौतस्मार्त-कर्म को हेय बतलाता था। यह पक्ष सांख्य-योगदर्शन के नाम से प्रख्यात हुआ। इन्हीं के तत्त्वज्ञान की पृष्ठभूमि पर तथा इन्हीं के निवृत्तिवाद के आश्रय में आगे चलकर वेदान्त-दर्शन, औपनिषदिक दर्शन, आरण्यक एवं संन्यासमार्ग स्थापित हुए।
तीसरा पक्ष है-प्रधानछायापन्न परमाणुवादी, अर्थात् परिणामीपरमाणुवादी। यह भी दूसरे पक्ष के समान प्रवर्तक धर्म का प्रबल विरोधी रहा। यह पक्ष जैन-दर्शन या निर्ग्रन्थदर्शन के नाम से प्रख्यात हुआ। यद्यपि बौद्धदर्शन भी प्रवर्तक धर्म का विरोधी माना जाता है, परन्तु वह स्वतंत्र नहीं, बल्कि द्वितीय और तृतीय पक्ष के मिश्रण का उत्तरवर्ती विकास है। लक्ष्य के प्रति सब एकमत, कर्म के स्वरूप के विषय में नहीं .. परन्तु सभी निवर्तक धर्मवादियों का इस लक्ष्य के प्रति सर्वात्मना मतैक्य रहा कि जीव किसी न किसी प्रकार से कर्मों को समूल नष्ट करके अपनी स्वाभाविक मौलिक शुद्ध अवस्था को प्राप्त करे और जन्म-मरण के चक्र से सर्वथा मुक्त सच्चिदानन्द दशा को प्राप्त करे, जिससे उसे पुनः संसार के जन्म-मरण के चक्र में न आना पड़े।
आशय यह है कि कर्म के बन्धक कारणों और उनके उच्छेदक हरपायों के सम्बन्ध में तो निवर्त्तक धारा के सभी चिन्तक सामान्यतया गौण
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