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विभिन्न कर्मवादियों की समीक्षा : चार पुरुषार्थों के सन्दर्भ में
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क्योंकि आत्मा की पूर्ण स्वतंत्रता, कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्ति एवं समस्त दुःखों के अन्त के लिए राग-द्वेष-मोह-मिथ्यात्व-मूलक समाजप्रचलित शिष्ट एवं विहित कर्म अन्ततोगत्वा पापकर्मों की तरह त्याज्य ही समझे जाने चाहिए। दोनों दलों की ध्येय दिशा में अन्तर
निष्कर्ष यह है कि प्रवर्तक और निवर्तक धर्म की ध्येय-दिशा एक दूसरे से विरुद्ध है। प्रवर्तक-धर्मवादी दल का ध्येय "गृहस्थवर्ग की पारिवारिक' एवं सामाजिक सुरक्षा और व्यवस्था से वैषयिक सुख की प्राप्ति है, जबकि निवर्तक धर्मवादी दल का ध्येय स्व-पुरुषार्थ से कर्मों से सर्वथा मुक्त होकर मोक्षसुख-आत्यन्तिक अव्याबाध शाश्वत आत्मिक सुख की प्राप्ति है। निवर्तक दल के द्वारा कर्मसिद्धान्त का व्यवस्थित विकास
इस दल ने जब कर्मों का सर्वथा उच्छेद और मोक्ष-पुरुषार्थ को मुख्यरूप से उपादेय और अभीष्ट मान लिया, तब इसे कर्मों के उच्छेदक एवं मोक्ष के जनक कारणों पर युक्ति, सूक्ति एवं अनुभूति के माध्यम से चिन्तन-मनन एवं सैद्धान्तिक दृष्टि से निश्चय करना अनिवार्य हो गया। यही कारण है कि इस दल ने व्यवस्थित रूप से जीव (आत्मा) के साथ अजीव पदार्थों के सम्बन्ध, तथा कर्मों के आगमन, बन्ध, एवं कर्मों के निरोध, आंशिक क्षय एवं सर्वथा क्षय करने के सम्बन्ध में (सात या नौ तत्त्वों के विषय में) व्यवस्थित ढंग से युक्तिसंगत चिन्तन-मनन करके सिद्धान्त स्थिर किया। कर्मों की प्रवृत्ति अज्ञान, मोह, मिथ्यात्व एवं राग-द्वेष, ... जैसाकि उत्तराध्ययन सूत्र में संकेत है(क) इमं वयं वेयविओ वयंति, जहा न होइ असुयाण लोगो ।
अहिज्ज वेए परिविस्स विप्पे, पुत्ते परिठप्प गिहसि जाया । भोच्वाण भोए सह इत्थियाहिं, आरण्णगा होइ मुणी पसत्या ।।
-उत्तरा. अ. १४ गा. ८-९ (ख) घोरासमं चइत्ताणं अन्न पत्थेसि आसमं ।
इहेव पोसहरओ भवाहि मणुयाहिवा!॥४२॥ जइत्ता विउले जन्ने, भोइत्ता समण-माहणे । दत्ता भोच्चा य जट्ठा य, तओ गच्छसि खत्तिया! ॥३८॥
-उत्तरा. अ. ९ गा. ४२, ३८ २. (क) जीवाजीवा य बंधो य पुण्णं पावासवो तहा ।
.: संवरो निज्जरा मोक्खो, सतेए तहिया नव ॥ -उत्तराध्ययन अ. २८, गा. १४ (ख) जीवाजीवासव-बन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्षास्तच्चम् ॥-तत्त्वार्थसूत्र अ. १ सू.४ ३. रागो य दोसो वि य कम्मबीय, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति ।।
-उत्तरा. अ. ३२, गा.७
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