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२२६ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
दुःखों का अन्त भी तभी होगा, जब उनके कारणभूत कर्मों का सर्वथा क्षय होगा।' निवर्तक धर्मवादी दल का अभीष्ट, कर्मों से मुक्ति ___जहाँ कहीं निवर्तक (निवृत्ति-प्रधान) धर्म का उल्लेख आता है, वहाँ सर्वत्र इसी (निवर्तकधर्मवादी) दल का संकेत है। इस दल के मन्तव्यानुसार आत्यन्तिक कर्म-निवृत्ति अर्थात्-कर्मों से सर्वथा मुक्ति और उसके लिए मोक्ष नामक चतुर्थ पुरुषार्थ करना अभीष्ट है और वह शक्य भी है। कर्मों की आत्यन्तिक निवृत्ति किसी दूसरी शक्ति देवी-देव, या ईश्वर आदि के सहारे से या उनके वरदान, आशीर्वाद मात्र से नहीं, अपितु स्वयं आत्मा के सम्यक् पुरुषार्थ से ही सम्भव है। कर्म चाहे शुभ हों या अशुभ, श्रेष्ठ हों या निकृष्ट, पुण्य-रूप हों या पापरूप, दोनों ही आस्रव (कर्मागमन) के कारण. हैं, और उन तथाकथित कर्मों (कार्यो) के साथ राग, द्वेष, कषाय, मोह, : अज्ञान (मिथ्यात्व) आदि का जाल होने से उनसे बन्ध अवश्य होगा। और कर्मबन्ध होता रहेगा, वहाँ तक जन्म-मरण रूप संसार-चक्र से छुटकारा नहीं होगा। इस प्रकार कर्म की उत्पत्ति के मूल कारण की मीमांसा करते हुए इस निवर्तकदल ने कहा कि अवश्य ही पुनर्जन्म का कारण कर्म है; और शिष्टजनसम्मत वेदविहित एवं तथाकथित समाज में उस युग में मान्य या प्रचलित कर्मों (कार्यो) के आचरण से स्वर्ग भी प्राप्त हो सकता है, किन्तु स्वर्ग-प्राप्ति में ही सन्तोष मानना, उससे आने का शक्य पुरुषार्थ न करना संसारी जीव का-विशेषतः मानव का चरम लक्ष्य नहीं है और न ही इसमें आत्मा के सम्यक् पुरुषार्थ की पूर्णता है। इसमें आत्मा. के द्वारा शुद्ध, स्व-स्वरूप की उपलब्धि करके परमात्मपद को प्राप्त करने का पुरुषार्थ नहीं है। अतः शुद्ध आत्मभाव की उपलब्धि, दूसरे शब्दों में कर्मों से सर्वथा मुक्त होकर परमात्मपद की प्राप्ति, और तदनुसार सम्यक् पुरुषार्थ की पूर्णता के लिए अधर्म-पाप (अशुभकम) की तरह तथाकथित धर्म-पुण्य (शुभकम) भी हेय है। कैसी भी शिष्ट-सम्मत और विहित सामाजिक प्रवृत्ति का आचरण हो, उसके पीछे राग, द्वेष, कषाय एवं तत्त्वज्ञान की अज्ञानता होने से वह अधर्मोत्पादक अथवा कर्मबन्धकारक ही होता है।
इसलिए पुण्य-पाप का अन्तर स्थूल दृष्टिवाले व्यक्तियों के लिए है, तात्त्विक दृष्टि से तो पुण्य और पाप ये दोनों ही राग-द्वेषादिमूलक होने से प्रकारान्तर से आस्रव और बन्ध के कारण हैं। अतः ये अधर्म एवं हेय ही हैं;
१. खवित्ता पुव्वकम्माई संजमेण तवेण य ।
सिद्धिमग्गमणुपत्ता ताइणो परिणिव्वुडा ।
-दशवैकालिक अ.३,गा.१५
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