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विभिन्न कर्मवादियों की समीक्षा : चार पुरुषार्थों के सन्दर्भ में
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रूप में प्रसिद्ध हुआ। मोक्ष और उसके साधन के रूप में संन्यास, सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय-साधना, तप, त्याग, संयम, संवर-निर्जरारूप धर्म आदि इस दल को बिलकुल मान्य नहीं थे।
यह दल गृहस्थ-वर्ग की सामाजिक-सुव्यवस्था का ही विशेषतः प्रतिपादक एवं समर्थक रहा। इसलिए इसने बहुजन-सम्मत, शिष्ट पुरुषों द्वारा मान्य, एवं वेदविहित आचरणों से धर्म की तथा निन्द्य एवं वेदनिषिद्ध आचरणों या कर्मों से अधर्म की उत्पत्ति बतलाकर कर्मफल के रूप में प्रायः सामाजिक सुव्यवस्था ही निश्चित की। इसी सुव्यवस्था का संकेत यत्र-तत्र वेदादि ग्रन्थों में मिलता है। यही प्रवर्तक धर्मवादी दल आगे चलकर ब्राह्मण-मार्ग, मीमांसक और कर्मकाण्डी नाम से विख्यात हुआ। निवर्तक धर्मवादी दल : मोक्ष पुरुषार्थ प्रधान
कर्मतत्त्ववादियों का दूसरा दल पूर्वोक्त दल के दृष्टिकोण से आंशिक रूप से सहमत होते हुए भी मानव-जीवन के अन्तिम लक्ष्य के विषय में सर्वथा भिन्न मत रखता था। उसका मन्तव्य था कि तथाकथित श्रेष्ठ लोक (स्वर्गलोक) प्राप्त कर लेने में ही जीव के पुरुषार्थ की विशेषतः मानव-जीवन के पराक्रम की अन्तिम परिणति नहीं है, और न ही शुभाशुभ कर्म के कारण जन्म-मरणरूप संसारचक्र में ही परिभ्रमण करते रहना, उसका अन्तिम लक्ष्य हो सकता है। उसकी अन्तिम मंजिल अथवा अन्तिम परिणति यही है,
और होनी चाहिए कि वह (सांसारिक आत्मा-जीव) अपने आप को कर्मों से सर्वथा विमुक्त तथा तप-संयम की संवर-निर्जरामय साधना से आत्मा को सर्वथा शुद्ध करके इस जन्म-मरणरूप संसारचक्र से सदा-सदा के लिए मुक्त होकर सच्चिदानन्दघनरूप अथवा अनन्त-ज्ञान-दर्शन-शक्ति-आनन्दरूप सिद्ध-परमात्मा की स्थिति प्राप्त कर ले। ऐसी ध्रुव, अनादिनिधन, शिव, अचल, अरुज, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, और अपुनरागमनरूप सिद्धि, मुक्ति एवं स्थिति प्राप्त करना ही जीवमात्र का, विशेषतः मानव का यथार्थ पुरुषार्थ है। उसके पुरुषार्थ का तेजस्वी एवं ऊर्जस्वी रूप तभी प्रगट होगा, जब वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर समस्त दुःखों का अन्त करेगा। और समस्त
१. (क) सव्वदुक्खपहीणट्टा पक्कमति महेसिणो। दशवै. ३/१३ उत्तरा. २८/३६
(ख) सव्वकम्म खवित्ताणं सिद्धि पत्ता अणुत्तरं ॥ -उनरा. अ. २३, गा. ४८ २. “सिवमयलमरुअमणंतमक्खयमब्बावाहमपुणरावित्ति सिद्धि गई नामधेयं ठाणं....।"
- आवश्यकसूत्र में प्रणिपातसूत्र (शक्र-स्तव) पाठ ।
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