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२२४ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) .
कर्मवादियों के मुख्य दो दल
इन कर्मवादियों के भी मुख्यतया दो दल रहे हैं। एक था-प्रवर्तक धर्मवादी और दूसरा था-निवर्तक धर्मवादी। यह तो दोनों धर्मवादी मानते थे कि पंचभूतात्मक या पौगलिक शरीर से भिन्न, किन्तु उसमें विद्यमान एक अन्य तत्त्व-आत्मा जीव है, जो अनादि-अनन्त है, अजर-अमर-अविनाशी है। कर्म-विशेष से सम्बद्ध होने के कारण अनादिकालीन संसार (जन्म-मरण) यात्रा के दौरान वह विभिन्न भौतिक शरीरों को धारण करता और त्यागता रहता है। परन्तु प्रवर्तक धर्मवादी दल का यह मन्तव्य था कि जन्म-जन्मान्तर के इस चक्र (संसार-परिभ्रमण) का सर्वथा उच्छेद कदापि शक्य नहीं है।
इन कर्मतत्त्ववादियों के मत में प्रवृत्ति ही प्रधान थी, वह भी इहलौकिक-पारलौकिक प्रवृत्ति ही इनके मतानुसार उपादेय थी। लोकोत्तर कर्मक्षयकारक प्रवृत्ति इन्हें अभीष्ट नहीं थी। उनकी प्ररूपणा इस प्रकार की थी कि कर्म का फल, जन्म-जन्मान्तर और परलोक अवश्य है, यदि अच्छा' लोक और अधिक सुख पाना है, अथवा सुख-सामग्री एवं भोग-सामग्री पाना है तो उसके लिए कर्म भी श्रेष्ठ होना चाहिए; गर्हित और निन्दित निषिद्ध कर्म का त्याग उसके लिए अनिवार्य है। श्रेष्ठ लोक और अधिक सुख-भोग पाने के लिए धर्म-विशेषतः वेदविहित कर्म ही आचरणीय एवं करणीय
इस मत के अनुसार अधर्म-पाप हेय है और धर्म-पुण्य उपादेय है। इसका मन्तव्य था-"अधर्म-अशुभ कर्म या दोष का फल नरक आदि निकृष्ट लोक है और धर्म-पुण्य या शुभ कर्म का फल स्वर्गलोक है। धर्मअधर्म ही प्रकारान्तर से पुण्य-पाप हैं, वे ही 'अदृष्ट' कहलाते हैं। उन्हीं के द्वारा इहलोक-परलोक में जन्म-जन्मान्तर एवं मरण आदि का चक्र चलता रहता है। उस चक्र का अन्त करना कदापि संभव नहीं है।
इससे यह स्पष्ट है कि प्रवर्तक धारा एक निश्चित परिधि से आगे नहीं बढ़ी। वह शुभकर्म और उसके फल तक ही सीमित रही। फलतः वह जीव (आत्मा) को उसकी असीम और शुद्ध शक्ति का सम्यग्दर्शन न करा सकी।
इस प्रकार यह प्रवर्तक धर्मवादी दल परलोकवादी होते हुए भी स्वर्गलोक को सर्वश्रेष्ठ और अन्तिम लक्ष्यरूप मानता था। और उसके साधन के रूप में धर्म, अर्थ और काम, इन तीन पुरुषार्थों को ही स्वीकार करता था। इसी कारण यह दल त्रिपुरुषार्थवादी अथवा प्रवर्तक-धर्मवादी के
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