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२१६ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
आत्मिक सुख (आनन्द) प्राप्तिरूप कहा है। भगवान् महावीर ने पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन में यही कहा था-(कर्मबन्ध के मूल कारण) राग और द्वेष के सम्यग्तया क्षय से, अज्ञान और मोह से विवर्जित (रहित) होने से तथा समस्त सम्यग्ज्ञान का प्रकाश हो जाने से साधक एकान्त (निराबाध) सुखरूप मोक्ष को प्राप्त करता है।"
यह है मोक्ष-पुरुषार्थ की साधना पर भारतीय अध्यात्मविदों एवं अध्यात्मनिष्ठों द्वारा बल देने का मुख्य कारण।
जैनदर्शन के अनुसार मोक्ष का अर्थ है-२ सम्पूर्ण कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाना। इसलिए एकमात्र मोक्ष ही मानव-जीवन का अन्तिम लक्ष्य होने से पिछले तीन पुरुषार्थों के कारण होने वाले कर्ममात्र, चाहें वे पुण्यरूपं हों या पापरूप, हेय हैं। मोक्ष पुरुषार्थ ही सर्वथा उपादेय है। मोक्ष पुरुषार्थ को उपादेय मानने का प्रबल कारण
मोक्ष-पुरुषार्थ को सर्वथा उपादेय मानने का एक प्रबल कारण यह भी है कि उसी पुरुषार्थ को मुख्यरूप से अपनाने के कारण व्यक्ति अव्याबाध एवं ऐकान्तिक अनन्त आत्मिक सुख (आनन्द) को प्राप्त कर सकता है और समस्त दुःखों से सर्वथा और सर्वदा मुक्त भी हो सकता है।
'दशवैकालिक सूत्र' में इसी तथ्य का समर्थन करते हुए कहा गया है"परीषहरूपी शत्रुओं का दमन करने वाले, मोह को प्रकम्पित (धराशायी) करने वाले जितेन्द्रिय महर्षि समस्त दुःखों को नष्ट करने के लिए (कर्म-मोक्षरूप) पुरुषार्थ (पराक्रम) करते हैं।"३ ।
यह निश्चित है कि जब तक आठ कर्मों में से चार घाती (आत्मगुणविघातक) कर्मों से जीव मुक्त वीतराग केवलज्ञानी नहीं हो जाता, तब तक उसे संसार की विविध गतियों और योनियों में परिभ्रमण करना पड़ता है। और संसार समस्त दुःखों से ओतप्रोत ही है।
___ 'भगवान् महावीर ने जन्म-मरणादिरूप संसार को दुःखमय बताया है-संसार में जन्म दुःखरूप है, मरण दुःखरूप है, जरा (वृद्धावस्था) भी १. नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अन्नाण-मोहस्स विवज्जणाए । रागस्स दोसस्स य संखएण, एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ।।
- उत्तराध्ययन अ. ३२, गा.२ २. कृत्स्न-कर्मक्षयो मोक्षः ।
-तत्त्वार्थसूत्र अ. १० सू. ३ ३. परीसह-रिउदन्ता धूयमोहा जिइंदिया ।
सव्व दुक्खपहीणट्ठा पक्कमति महेसिणो । ४. मोहक्षयाज्ञान-दर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । -तत्त्वार्थ अ. १०./१
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