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विभिन्न कर्मवादियों की समीक्षा : चार पुरुषार्थों के सन्दर्भ में २१५ चारों ही पुरुषार्थों का साध्य
इन चारों ही पुरुषार्थों का साध्य इहलौकिक और पारलौकिक और लोकोत्तर सुख-प्राप्ति रहा है। किन्तु शर्त यह थी कि धर्म और मोक्ष के अंकुश में अर्थ और काम पुरुषार्थ रहें, तभी इहलौकिक एवं पारलौकिक तथा लोकोत्तर सुख (आत्मानन्द) प्राप्त हो सकता है। यदि अर्थ और काम निरंकुश रहें तो उनसे क्षणिक वैषयिक सुख भले ही प्राप्त हो जाय, इहलौकिकपारलौकिक जीवन में सच्चा सुख अथवा आत्मिक (आत्माधीन-स्वाधीन) सुख (आनन्द) प्राप्त होना बहुत ही दुष्कर है। एकान्त धर्म पुरुषार्थ यदि केवल शुभकर्म (पुण्य) के उपार्जन करने अर्थ में हो, तो वह भी जन्म-मरण रूप संसार में परिभ्रमण कराने का कारण है। प्रचुर पुण्यराशि के उपार्जन के कारण कदाचित् स्वर्ग (देवलोक) में देवजन्म या मानवजन्म प्राप्त हो जाए, परन्तु वह भी तो संसार का कारण है। धर्म-पुरुषार्थ यहाँ संवर-निर्जरा का हेतु नहीं - कोई कह सकता है कि धर्म तो साक्षात् मोक्षप्राप्ति का कारण है। जैनदर्शन के महान् विद्वान् आचार्य समन्तभद्र ने भी सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र रूप रत्नत्रय को धर्म माना है। जिससे आत्मशुद्धि हो, कर्मों का क्षय या निरोध जिस अनुष्ठान से हो, जिस अनुष्ठान के साथ किसी प्रकार की आसक्ति, ममत्व, फलाकांक्षा अथवा कषायवृत्ति न हो, वह शुद्ध धर्म है। किन्तु जहाँ धर्म-पालन के साथ राग, द्वेष, फलाकांक्षा, या बड़प्पन की आकांक्षा, प्रतिस्पर्द्धा, कषायवृत्ति, आसक्ति आदि कालुष्य की मिलावट हो, वहाँ वह शुद्धता नहीं रहती। यही कारण है कि शुद्ध संयम (संवरनिर्जरारूप धम) जहाँ कर्म-क्षय एवं कर्मनिरोध एवं मोक्षप्राप्ति का कारण है, वहाँ सराग-संयम, संयमासंयम, अकाम निर्जरा, तथा सम्यग्ज्ञानरहित तप से शुभकर्म (पुण्य) बन्ध होने से ये देवजन्म-प्राप्ति के कारण हैं। 'मोक्षपुरुषार्थ का फल एवं उपादेयत्व - इसीलिए श्रमण भगवान् महावीर आदि समस्त तीर्थंकरों, अवतारों, महापुरुषों एवं ऋषि-मुनियों ने मानव-जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष या परमानन्द की प्राप्ति बताया है। उन्होंने मोक्ष को ही एकान्त निराबाध
१. सद्दर्शन-ज्ञानवृत्तस्तु धर्म धर्मेश्वरा विदुः ।
यदीय-प्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥ -रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लो. ३ २. सराग संयम-संयमासंयमाकामनिर्जरा-बालतपांसि देवस्य ।
-तत्त्वार्थसूत्र अ. ६ सू. २०
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