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कर्म का अस्तित्व विभिन्न प्रमाणों से सिद्ध १६५
उसकी विभिन्न अवस्थाओं के कारण के रूप में कर्म की सत्ता सिद्ध होती है ।"
इसी प्रकार 'कषायपाहुड' में कर्म का अस्तित्व सिद्ध करते हुए कहा गया है कि "जीवों का ज्ञान सदैव एक-सा नहीं रहता। ज्ञान की मात्रा की इस प्रकार की न्यूनाधिकता या तरतमता का कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए। ज्ञान के न्यूनाधिक भाव का जो भी कारण है, वह कर्म ही है।
अन्य दर्शनों में भी 'कर्म' की अस्तित्व सिद्धि
जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों में भी कर्म के अस्तित्व को माना गया है और विभिन्न प्रमाणों, युक्तियों और तर्कों से कर्म के अस्तित्व को सिद्ध भी किया गया है।
भगवद्गीता में बताया गया है कि "कोई भी (संसारी) व्यक्ति कर्म किये बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता। कर्म न करने से शरीर निर्वाह भी नहीं होता" । बौद्धदर्शन में बताया गया है कि “प्रतीत्य-समुत्पाद का चक्र कर्म के नियम के आधार से ही चलता है। कर्म और फल के पारस्परिक सम्बन्ध के कारण भवचक्र चलता रहता है।"
“कर्म ही प्राणियों को निकृष्ट या उत्कृष्ट बनाता है। जो मनुष्य हिंसा करता है, क्रोध करता है, ईर्ष्या करता है, लोभ और अभिमान करता है, वह वर्तमान शरीर को छोड़कर मरने के बाद दुर्गति में जाता है, अगर मनुष्य योनि में जन्म लेता है, तो वह हीन, दरिद्र और बुद्धिहीन बनता है।
मनुष्य शुभकर्म करता है, उसकी सुगति होती है और यदि वह मनुष्य योनि में जन्म ग्रहण करता है तो उत्तम, समृद्ध और प्रज्ञावान् होता है। सारांश यह है कि विश्व की व्यवस्था में कर्म ही प्रधान है।
१ (क) प्रवचनसार, तत्त्वप्रदीपिका गा. ११७
(ख) जैन दर्शन में आत्मविचार पृ. १९०
२ (क) एदस्स पमाणस्स वड्डि- हाणि - तरतम भावो ण ताव णिक्कारणो 'तम्हा सकारणा हि सिद्धं ।
। जं तं हाणि-तरतमभावकारणं तमावरणमिति
- कसाय पाहुड १/१/१ प्र. ३७-३८
(ख) जैन दर्शन में आत्मविचार, पृ. १९०
३ (क) भगवद्गीता ३/५
(ख) वही, ३/८
४ (क) बौद्धधर्मदर्शन (आचार्य नरेन्द्रदेव ) पृ. २५०
(ख) मज्झिमनिकाय के चुल्लकम्मविभंगसुत्त, महाकम्मविभंगसुत्त में देखें ।
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