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कर्म का अस्तित्व कब से और कब तक ? १६९
तिम्रोणो परिक्षा मा पद्मा न हो, इसस बाज-वृक्षन्यायन कम आर जाव की सम्बन्ध प्रकृति, शील और स्वभाव के कारण अनादि है। इसके अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं, यह स्वतः सिद्ध है । ' तात्त्विक दृष्टि से कर्म और जीव का सादि और अनादि सम्बन्ध
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इसे तात्त्विक दृष्टि से समझना चाहें तो यों समझ सकते हैं - जीव की मानसिक, वाचिक और कायिक शुभाशुभ प्रवृत्ति (क्रिया या व्यापार) जब से शुरू हुई है, अथवा जब से कषायादि का संयोग हुआ है, तब से कर्म आत्मा के लगे हैं और तब तक लगे रहेंगे, जब तक जीव के योग (मनवचन काया की प्रवृत्ति) और कषाय (क्रोधादि तथा राग-द्वेष- मोहादि) रहेंगे। अतः अनेकान्तवाद की भाषा में यों कहा जा सकता है - एक जीव (आत्मा) की अपेक्षा से कर्म का अस्तित्व सादि (आदि- प्रारम्भयुक्त) सिद्ध होता है, जबकि जगत् के समग्र जीवों की अपेक्षा से कर्म प्रवाहरूप से अनादि है।
विकासवाद और जीव का सम्बन्ध
यद्यपि वर्तमानकाल में डार्विन आदि के विकासवाद - सिद्धान्त को मानने वाले.यह कहते हैं कि मनुष्य अपनी प्रारम्भिक विकास की अवस्था में बन्दर था, धीरे-धीरे उसे यह अवस्था प्राप्त हुई है । विकासवाद का यह सिद्धान्त कैसा भी क्यों न हो, इससे बीज - वृक्षन्यायेन कर्म और जीव की संसारी दशा की अनादिकालीन मान्यता में कोई बाधा नहीं आती । अतीतकाल में जहाँ भी जाकर हम प्राणियों की उत्पत्ति के क्रम का विचार करते हैं, वहाँ हमें यही मानना पड़ेगा कि जिस क्रम से इस समय प्राणियों की उत्पत्ति होती है, उसी क्रम से अतीतकाल में भी उनकी उत्पत्ति होती रही होगी। यह नहीं हो सकता कि पहले उनकी उत्पत्ति बिना माता-पिता के या बिना बीज के वृक्ष के होती थी, और अब उनकी उत्पत्ति इस क्रम से होने लगी है।
आत्मा अनादि है तो क्या कर्म भी अनादि है ? : एक विश्लेषण
* भारतीय आस्तिक दर्शनों की दृष्टि में आत्मा अनादि है, वह अज, अविनाशी, अमर, अजर, नित्य और शाश्वत तत्त्व है। भगवद्गीता और त्यानांगसूत्र में स्पष्ट कहा गया है - "यह आत्मा न तो कभी उत्पन्न होती
गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गा. २ - पयडी सील सहावो, जीवंगाण अणाइसंबंधो । कणयोवले मलं वा, ताणत्थित्तं सयं सिद्धं ॥ २ ॥
महाबंध भा. २ की प्रस्तावना (भारतीय ज्ञानपीठ) पृ. १६
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