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१६८ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
अस्तित्व को भी समझना आवश्यक है ।' आध्यात्मिक विकास और हास को समझने के लिए आत्मा के साथ-साथ कर्म को भी समझना आवश्यक है। आत्मा के अस्तित्व को समझना जितना प्राथमिक और अनिवार्य है, उतना ही प्राथमिक और अनिवार्य है- 'कर्म' के अस्तिव को जानना, मानना और विश्वास करना; तथा अन्ततोगत्वा कर्म के जाल से सर्वथा मुक्ति पाना । तभी आध्यात्मिक पूर्णता के शिखर पर आत्मा पहुँच सकती है।
कर्म का अस्तित्व कब से ? कब तक ?
जिन मनीषियों ने कर्मविज्ञान के महासागर में गोते लगाए, उनके समक्ष यह प्रश्न आया कि 'कर्म का अस्तित्व कब से है और कब तक रहेगा' ? इसका सीधा और सरल समाधान उन्होंने यही दिया कि जब से जीव (आत्मा) संसारी हुआ और जब तक वह संसारी (बद्ध) रहेगा. तब से तब तक कर्म का अस्तित्व है।
दोनों का सम्बन्ध अनादि क्यों ? कैसे ?
प्रश्न यह है कि जीव संसारदशा को क्यों प्राप्त होता है, जबकि रागद्वेष के बिना कर्मबन्ध नहीं हो सकता और कर्मबन्ध हुए बिना राग-द्वेष नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में जीव की यह (संसारी) अवस्था कैसे और कब से हुई है ? इसका समाधान जैनकर्ममर्मज्ञों ने यह दिया कि संसार की यह चक्र-परम्परा अनादिकाल से बीज - वृक्ष या पिता-पुत्र से समान चली आ रही है। बीज से वृक्ष होता है, वृक्ष से बीज; इन दोनों में से किसका प्रारम्भ सर्वप्रथम हुआ, यह कोई नहीं कह सकता। इसी प्रकार कर्म और जीव (संसारी जीव ) की परम्परा अनादि है। अर्थात् जीव के संसार के कारणभूत राग-द्वेष और कर्मबन्ध की परम्परा को अनादिकालिक समझना चाहिए।
संसार आनादि है, अतएव जीव और कर्म का सम्बन्ध भी अनादि
संसार अनादि है। इस अपेक्षा से जीव और कर्म का सम्बन्ध भी जब तक संसार है, तब तक है, अर्थात् - प्रवाहरूप से जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है। वेदान्तदर्शन के मूर्धन्य ग्रन्थ 'ब्रह्मसूत्र' में संसार का अनादित्व स्वीकार करते हुए, कर्म को भी अनादि माना गया है। जीव और कर्म के सम्बन्ध को अनादि बताते हुए 'गोम्मटसार' में कहा गया है: - 'कनक
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१. (क) जैनयोग (युवाचार्य महाप्रज्ञ) पृ. ३५ (ख) आनन्दघन चौबीसी पद्मप्रभस्तवन
२. ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्यसहित, २-१-३५
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