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१९८ कर्म - विज्ञान : कर्म का अस्तित्व. (१)
धर्मोपदेशकों या धर्मसंस्थापकों, सुधारकों या जनसेवकों की आवश्यकता ही न रहती, और न ही राजकीय, सामाजिक एवं न्यायिक दण्ड व्यवस्था की जरूरत पड़ती। फिर तो किसी को नीति और धर्म की मर्यादा तोड़ने की नौबत ही न आती। सत्कार्यों से लोग प्रत्यक्ष लाभान्वित होते और दुष्कृत्यों से स्वयमेव दण्डित हो जाते।
कर्मफल विलम्ब से मिलने पर भी सभी व्यवहार होते हैं
कर्मफल पर जो पूर्ण आस्थावान होते हैं, वे कर्म के अस्तित्व के विषय कभी सन्देह नहीं करते। उनका अनुभव यह है कि कर्मफल विलम्ब से मिलने में अपवाद अधिक नहीं, कम ही दृष्टिगोचर होते हैं। लोकव्यवहार में हम देखते हैं कि अधिकांश कर्मों के फल यथासमय मिलते ही हैं। जैसेगृहस्थ जीवन में कृषि, पशुपालन, चिकित्सा, शिक्षा, व्यवसाय, नौकरी, शिशुपालन आदि अनेक उपयोगी प्रवृत्तियाँ चलती हैं, उनका फल भी यथासमय मिलता है। अन्यथा इनमें से कोई भी सत्प्रवृत्ति अनिश्चितता की स्थिति में न चलती। पारस्परिक व्यवहार में भी सज्जनता - दुर्जनता, न्यायअन्याय, नैतिकता - अनैतिकता, सभ्यता - असभ्यता आदि की प्रतिक्रिया भी होती है, यदि प्रतिक्रिया न होती तो लोग इनके परिणामों को देख-सुनकर स्वयं के स्वभाव और आचरण को अच्छाई की ओर न ढालते; वैज्ञानिक, अध्यापक, चिकित्सक, उपदेशक आदि भी अपने - अपने सत्कार्यों में प्रवृत्त न होते।
इसलिए यह तो कदापि नहीं समझना चाहिए कि- शुभाशुभ कर्मों का फल नहीं मिलता। रही देर-सबेर की बात। यह तो कर्मों के परिपक्व होने पर निर्भर है। कारखाना लगाने से लेकर पर्याप्त लाभ मिलने तक की प्रक्रिया में समय का काफी अन्तर रहता है, रोपे हुए पौधे को विशाल वृक्ष बनने और फलने में कई वर्ष लग जाते हैं। इसका मतलब है, प्रत्येक कार्य को सफलता के शिखर तक पहुँचने में काफी समय लगता है। इसलिए कर्म का फल तत्काल न मिलते या कुछ विलम्ब से मिलते देख धैर्य खो बैठना और कर्म या फल के विषय में संदेह कर बैठना, या अभी फल नहीं मिला तो कभी नहीं मिलेगा, यह मान बैठना बालबुद्धि का लक्षण है। ' महान् पुरुषों को मिलने वाले अशुभकर्मफल का कारण पूर्वजन्मकृत कर्म है
कई लोग कर्म और कर्मफल के सम्बन्ध में अधिकाधिक अनास्था तब प्रकट करते हैं जब वे देखते - सुनते हैं कि सदाचारी, नीतिमान, धर्मात्मा एवं
१. समतायोग पृ. ५०२ से सार संक्षेप
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