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कर्म अस्तित्व के प्रति अनास्था अनुचित २०३
देने के लिए मरने के बाद मेरे दोनों हाथ जनाजे (अर्थी) के बाहर लटका कर रखे जाएँ, ताकि लोग देख सकें कि सिकन्दर परलोक में खाली हाथ जा रहा है।"" ऐसा ही किया गया।
सिकन्दर की इस कहानी से स्पष्ट है कि वह इस लोक से विदा होते समय अपने क्रूर पापकर्मों के लिए परलोक में मिलने वाले फल के विषय में सोचकर अत्यन्त भयभीत और शोकसंतप्त हुआ था ।
परामनोवैज्ञानिकों ने यह अनुभव किया है कि दुष्कर्म कर्ता और दुर्बुद्धिग्रस्त मनुष्य मरते समय डरावने दृश्य देखते हैं। उन्हें अपने चारों और भय तथा आतंक का वातावरण छाया दीखता है। यमदूतों की डरावनी आकृतियाँ, उनकी धमकियाँ तथा प्रताड़नाएँ भी उन्हें अनुभव होती हैं तथा वैसी ही कष्टकारक अनुभूति होती रहती है। यदि अन्तःकरण शान्त और संतुलित हुआ तो उस स्थिति में सुसंस्कारों और सत्कर्मों की प्रतिक्रिया स्वर्गीय सुखानुभूति जैसी होती रहती है।
इहजीवनवादियों द्वारा अनैतिक एवं स्वेच्छाचारी प्रवृत्ति
भौतिकविज्ञानी यह कहते रहे हैं कि प्राणी एक प्रकार का रासायनिक संयोग है। चार्वाक् आदि दर्शन पंचभूतों या चारभूतों के सन्तुलन क्रम से शरीर की उत्पत्ति और स्थिति मानते हैं। इन पंचभूतों के बिखरते ही यह शरीर मर जाता है, उसके साथ ही यह जीव भी समाप्त हो जाता है। शरीर से भिन्न आत्मा (जीव ) की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है ।
यह मान्यता मनुष्य को निराश ही नहीं, अनैतिक, स्वच्छन्दाचारी और . निरंकुश भी बनाती है। वह सोचता है - जब शरीर के साथ ही सब कुछ मर जाता है तब इहलौकिक कामभोगजन्य सुखों का जितना उपभोग किया जा सके, मौज की जा सके, उतनी क्यों नहीं कर ली जाए ? यदि राजदण्ड या समाजदण्ड से बचा जा सकता है, तो जघन्य अपराधों और पापकर्मों द्वारा शीघ्रातिशीघ्र अधिक मात्रा में सुख-साधन क्यों न जुटा लिये जाएँ !
अतः कर्म और कर्मफल में अनास्था रखकर मरणोत्तर जीवन में उनका अस्तित्व न मानने वाले अज्ञ और अदूरदर्शी मानव शुभकर्म का फल तत्काल न मिलने की स्थिति में उसके लिए उत्साहित नहीं होते और यही सोचते हैं कि पुण्य-परमार्थ का हाथोंहाथ कोई लाभ नहीं मिलता, तब क्यों समय • और धन की बर्बादी की जाए ? इसी प्रकार अशुभ कर्मों का फल तत्काल न मिलने की कल्पना में मनुष्य पापकर्मों के दण्ड से सामाजिक एवं राजकीय
'भारतीय इतिहास के नायक' से संक्षिप्त
अखण्ड ज्योति जून ७४ के 'मृत्यु न तो जटिल है, न दुःखद' लेख से पृ.२९
अखण्ड ज्योति, जुलाई १९७४ से सारांश उद्धृत
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